ली होंगज़ी
23 मार्च, 1997 ~ न्यूयॉर्क शहर
बहुत दूर और महासागरों द्वारा अलग करने के कारण, आपसे मिलना सरल नहीं है। लेकिन यद्यपि आप मुझे व्यक्तिगत रूप से नहीं देख सकते, जब तक आप साधना अभ्यास करते हैं, मैं वास्तव में आपके बिलकुल पास हूँ। और जब तक आप साधना अभ्यास करते रहेंगे, मैं अंत तक आपके लिए उत्तरदायी हो सकता हूं; उससे भी अधिक मैं हर पल आपका ध्यान रख रहा हूं। (तालियाँ) जो कोई भी इसे इस प्रकार से नहीं करता है वह एक बुरा अभ्यास सिखाने, बुरे काम करने, और लापरवाही से स्वर्ग के रहस्यों को प्रकट करने जैसा ही कर रहा है। निश्चित ही, क्योंकि आप इसे अपने वास्तविक अनुभवों से पहले से ही जानते हैं, इसलिए मुझे इसे बहुत अधिक समझाने की आवश्यकता नहीं है। मैं केवल उस बारे में बात करता हूं जो मैं कर सकता हूं और जो मैं नहीं कर सकता उसके बारे में बात नहीं करता हूं। इसलिए दाफा स्वस्थ तरीके से विकसित हो रहा है।
जब मैं आपसे पिछली बार मिला था तब इतने लोग नहीं थे। निश्चित ही, और भी बहुत से लोग हैं जो यहां नहीं हैं क्योंकि वे काम के कारण नहीं आ पाए हैं। अर्थात, जब से मैं आपसे पिछली बार मिला था तब से बहुत अधिक लोग ताओ में प्रवेश कर चुके हैं और फा को प्राप्त कर चुके हैं। यह तथ्य कि यह फा इतनी तेजी से विकसित हो सकता है और इतने बड़े पैमाने पर फैल सकता है, मुझे विश्वास है, यह दाफा की शक्ति के कारण है। इस बीच, दाफा के प्रसार की प्रक्रिया में हमने जो मार्ग अपनाया है वह सही है। क्योंकि हम वास्तव में अपने शिष्यों और समाज के प्रति उत्तरदायी रहे हैं, इसलिए हम इन परिणामों को प्राप्त करने में सक्षम हुए हैं। क्योंकि आपके साथ मिलने के अवसर बहुत कम हैं—मेरे लिए संयुक्त राज्य अमेरिका आना सरल नहीं है, वीजा की आवश्यकता होती है, और इसलिए यह काफी असुविधाजनक है—अब जबकि हम मिलने में सक्षम हैं, मैं आपकी कुछ समस्याओं को हल करने में आपकी सहायता करने के लिए अपना पूरा प्रयत्न करना चाहता हूं। आप कोई भी प्रश्न उठा सकते हैं और मैं आपके लिए उनके उत्तर दूंगा। आइए इस अवसर का सर्वोत्तम उपयोग करें जिससे आपको अपने कुछ जटिल और कठिन प्रश्नों को हल करने में सहायता मिल सके, और संयुक्त राज्य अमेरिका में दाफा को और भी अधिक स्वस्थ तरीके से विकसित किया जा सके। मैं मूल रूप से कुछ विशिष्ट मुद्दों के बारे में छात्रों से बात करना चाहता था, लेकिन श्रोताओं में आप में से कुछ को कल "विशेष उपहार" मिला। क्योंकि वे पहले पहुँच गए थे इसलिए कल मैंने उनके कुछ प्रश्नों के उत्तर दिए। लेकिन चिंता न करें, आज पछतावा न करें: आप में से जिन लोगों ने इसे कल नहीं सुना था, वे अभी भी प्रश्न पूछ सकते हैं और मैं आपके लिए उनके उत्तर दूंगा।
मैं इस समय का उपयोग आपसे साधना संबंधी विषयों पर बात करने के लिए करूँगा, दूसरे शब्दों में, फा के विषय में। मुझे पता है कि इस अवधि के दौरान आप तेजी से सुधार कर चुके हैं - वास्तव में, बहुत तेजी से। जब मैं पिछली बार संयुक्त राज्य अमेरिका से चीन लौटा था, तो मैंने चीन में छात्रों से कहा था कि संयुक्त राज्य अमेरिका एक विशेष स्थान है और कई उत्कृष्ट लोग - विशेष रूप से उत्कृष्ट चीनी लोग - वहाँ हैं। इन लोगों में अपेक्षाकृत अच्छे जन्मजात गुण है, दाफा की गहरी समझ है, शीघ्र ही समझ जाते है, और अपने स्तरों में तेजी से आगे बढ़ते हैं। ये लाभ हैं जो आपके हैं। लेकिन आत्मसंतुष्ट न हों, क्योंकि आपके भी विभिन्न रूपों में मोहभाव और बाधाएँ हैं जिन्हें हटाने की आवश्यकता है, और केवल तभी आप और भी तेजी से सुधार कर सकते हैं।
अब मैं रोग कर्म के बारे में बात करूँगा, एक ऐसी समस्या जो हमारे कई छात्रों को परेशान कर रही है जिन्होंने फा का एक गहरे स्तर पर अध्ययन नहीं किया है। फिर भी मैं अपनी पुस्तक में पहले ही बता चुका हूँ कि हम साधकों को रोग से कैसे निपटना चाहिए। मैं इसके बारे में फिर से एक और दृष्टिकोण से बात करूंगा। तथ्य यह है कि, हम अभ्यासियों को स्वयं की साधारण लोगों के साथ तुलना नहीं करनी चाहिए। आप जानते हैं, प्राचीन समय में जब कोई भिक्षु बन जाता था, लोग अब उसे एक साधारण व्यक्ति के रूप में नहीं मानते थे—वह पहले से ही अर्ध-देवता था। तो मनुष्य और देवता में क्या अंतर है? एक मनुष्य में भावुकता (चिंग) होती है—बहुत शक्तिशाली भावुकता। मनुष्य इस संसार में निश्चित ही इसी भावुकता के लिए जीते हैं। भावुकता के बिना आप इस संसार में नहीं रह सकते। आपको क्या पसंद है, आपके कौन से शौक हैं, आपको क्या प्रसन्न करता है, आपको क्या क्रोधित करता है, परिवार के बीच प्रेम, पति और पत्नी के बीच प्रेम, बच्चों के लिए प्रेम, आप क्या करना चाहते हैं, क्या नहीं करना चाहते हैं, आपका कुछ प्रकार की चीजों को पसंद करना, आपका कुछ प्रकार की चीजों को पसंद नहीं करना, और इत्यादि—सब कुछ मानवीय भावुकता से आता है। इस भावुकता के बिना कोई सामान्य मानव समाज नहीं होगा। इस भावुकता की स्थिति के बीच, लोग सामान्य मानवीय अवस्था के अनुरूप जो करते हैं, उसे अनुचित नहीं माना जा सकता। तो पिछली पीढ़ियों में बहुत से लोगों ने ऐसा क्यों कहा कि मनुष्यों की सारी समझ अनुचित थी? ऐसा इसलिए था क्योंकि जिन लोगों ने ये शब्द कहे थे वे अब साधारण लोग नहीं थे और वे मनुष्यों को दूसरे आयाम से देखते थे। लेकिन क्योंकि लोग साधारण मनुष्यों के बीच हैं, आप यह नहीं कह सकते कि वे अनुचित हैं। जैसा कि मैंने कल कहा था, हालांकि यह मानव समाज भयानक है, यह अभी भी स्तरों में से एक है - सबसे निचला स्तर - जो पूरे ब्रह्मांड में ऊपर से नीचे तक चलता है, और ब्रह्मांड की प्रकृति दाफा की अभिव्यक्ति है - सबसे निचले स्तर पर। इस मानवीय स्तर के न होने से काम नहीं चलेगा। यह भी असंभव है कि प्रत्येक व्यक्ति साधना द्वारा बुद्ध बन जाए। मानव समाज का अस्तित्व न होना असंभव है—यह बस इसी तरह से अस्तित्व में है। बात बस इतनी है कि यह एक बहुत ही विशेष वातावरण है, और यह उच्च स्तरों के लोगों को बना सकता है। इसलिए जब आप मनुष्यों को ऊँचे स्तरों के दृष्टिकोण से देखते हैं तो यह अलग होता है। इसलिए मैंने कहा है कि एक साधक के रूप में आप जो कुछ भी देखते हैं, जिसके संपर्क में आते हैं, या जो अनुभव करते हैं, उसका मूल्यांकन करने के लिए आप सामान्य मानवीय धारणाओं का उपयोग नहीं कर सकते। इस प्रकार आपको अपने आप को एक उच्च स्तर पर रखना होगा।
जब एक साधारण व्यक्ति रोगी हो जाता है और अस्पताल नहीं जाता है या दवा नहीं लेता है, जो साधारण लोगों के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, यह इस संसार के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, और लोग इसे स्वीकार नहीं कर सकते हैं: "निश्चित ही एक व्यक्ति को रोग होने पर दवा लेने की आवश्यकता होती है।" "निश्चित ही एक व्यक्ति को रोगी होने पर उपचार के लिए अस्पताल जाना पड़ता है।" इस प्रकार से लोग इससे निपटते हैं, और यह अनुचित नहीं है। लेकिन एक साधक के रूप में आप स्वयं को एक साधारण व्यक्ति समझने का भ्रम न रखें। इसे थोड़ी गंभीरता से समझें तो, आप अब साधारण मनुष्य नहीं हैं। जैसा कि मैंने अभी कहा, मनुष्यों की विभिन्न भावुकताएँ और इच्छाएँ होती हैं, और वे भावुकता (चिंग) के लिए जीते हैं। साधना के दौरान आप धीरे-धीरे इन चीजों को अधिक हल्के में ले रहे होते हैं और धीरे-धीरे उन्हें तब तक छोड़ रहे होते हैं जब तक कि आप उन्हें पूरी तरह से त्याग नहीं देते। मनुष्य इन चीजों के लिए जीते हैं, लेकिन आप नहीं। क्या आप एक साधारण मनुष्य के समान हो सकते हैं? आप समान नहीं हैं। क्योंकि यह ऐसी बात है, तो आप उच्च-स्तरीय सिद्धांतों को लागू क्यों नहीं करते जो वैसे नहीं हैं जैसे मनुष्य समस्याओं का मूल्यांकन करने और स्वयं का व सामने आने वाली चीजों का मूल्यांकन करने के लिए करते हैं? यह ऐसा ही होना चाहिए। इसलिए मैंने आपको बताया है कि जब हम साधक अपने शरीर में कहीं असहज अनुभव करते हैं तो यह रोग नहीं है। फिर भी जिसे साधारण लोग एक रोग अवस्था मानते हैं, और वह अवस्था जो एक साधक के शरीर में प्रतिबिंबित होती है जब उसके कर्म कम हो रहे होते हैं, दोनों समान हैं। साधारण लोगों के लिए अंतर बताना कठिन है। इसलिए साधना अभ्यास ज्ञानप्राप्ति (वू) पर बल देता है। यदि वे समान नहीं होते, तो हर कोई साधना का अभ्यास करता और ज्ञानप्राप्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि किसी व्यक्ति के शरीर में केवल अद्भुत चीजें घटित होती और थोड़ी सी भी असुविधा वैसे अनुभव होती जैसे अमर प्राणी अनुभव करते हैं, तो मुझे बताएं, कौन साधना नहीं करेगा? हर कोई करेगा, लेकिन तब इसकी गणना नहीं होगी—यह साधना के रूप में नहीं गिना जाएगा। इसके अतिरिक्त, लोगों को उस प्रकार से साधना करने की अनुमति नहीं है, क्योंकि इसमें कोई ज्ञानप्राप्ति सम्मिलित नहीं होगी। इसलिए साधना में आपका परीक्षण इस बात की अनिश्चितता के बीच होना तय है कि क्या सत्य है और क्या असत्य, यह देखने के लिए कि आप इस विषय से कैसे निपटते हैं - यह देखने के लिए कि क्या आप स्वयं को एक साधक के रूप में मानते हैं या एक सामान्य, साधारण व्यक्ति के रूप में। क्या ये यह देखने के लिए नहीं है कि क्या आप साधना कर सकते हैं? निश्चित ही, आप साधारण प्रतीत होते हैं और सतह पर एक साधारण व्यक्ति से अलग नहीं हैं, लेकिन वास्तव में आप एक साधक हैं।
कल मैंने बुद्ध फा साधना पर चर्चा की। ब्रह्मांड में साधना सबसे महत्वपूर्ण चीज है। एक मनुष्य इतने ऊंचे स्तर पर पहुँचना चाहता है, और एक अरहत, एक बोधिसत्व, एक बुद्ध, एक ताओ, या एक देवता बनना चाहता है; यदि कर्म से भरे शरीर वाले मनुष्य को देवता बनना है, तो क्या आप नहीं कहेंगे कि यह एक गंभीर विषय है? क्या आपको इन विषयों को कड़ाई से उच्च आदर्श के साथ नहीं देखना चाहिए और क्या स्वयं की सोच पवित्र बनाये नहीं रखनी चाहिए? यदि आप अभी भी इन विषयों को एक साधारण मानवीय दृष्टिकोण से देखते हैं, तो क्या आप स्वयं एक साधारण मनुष्य नहीं हैं? यह इतना गंभीर विषय है - आपको बुद्ध बनने में सक्षम बनाता है - फिर भी आप स्वयं को मनुष्य जैसा मानते हैं और मानवीय सिद्धांतों के साथ इन चीजों का मूल्यांकन करते हैं। तब यह काम नहीं करेगा; आप इसके बारे में गंभीर नहीं हैं, इसलिए आप साधना नहीं कर सकते। बुद्ध, ताओ और देवता वैसे नहीं हैं जैसे आज के भिक्षु और आज के लोग सोचते हैं। जैसा कि आप जानते हैं, बुद्धों और देवताओं में साधारण मानवीय भावनाएँ नहीं होती हैं, न ही उनका साधारण मानवीय सोचने का तरीका होता है या वे धारणाएँ जो साधारण मनुष्यों की चीजों की समझ की होती हैं। उनके सोचने का तरीका बिल्कुल भिन्न आयाम का है, और वे मानवीय अवधारणाओं और चीजों की धारणाओं से मुक्त हैं। अब लोगों ने बुद्धों और बोधिसत्वों का मानवीकरण कर दिया है, और उनके बारे में ऐसा सोचते हैं जैसे उनमें मानवीय भावनाएँ और मानवीयता थी। जब कुछ लोग बुद्धों की पूजा करने और धूप जलाने के लिए मंदिरों में जाते हैं, तो वे वहां साधना के लिए या सम्मान प्रदान करने के लिए नहीं जाते हैं, बल्कि चीजें मांगने के लिए जाते हैं—बुद्धों से अपने मोह भावों के साथ मांगते हैं। इसके बारे में सोचें, यह कितनी बुरी नीयत है!
अतीत में लोग बुद्धों की पूजा केवल सम्मान करने के लिए करते थे। अर्थात्, अपने लिए कुछ माँगने के स्थान पर, वे बुद्धों का सम्मान करने, बुद्धों की पूजा करने, या स्वयं की साधना बुद्ध बनने के लिए करते थे क्योंकि बुद्ध महान हैं और बुद्ध विशाल स्तर पर मानव जाति की रक्षा करते हैं। लेकिन आजकल लोग वैसे नहीं रहे हैं। अतीत में जब लोग किसी बुद्ध या बोधिसत्व के बारे में सोचते थे तो उनके मन में हमेशा पवित्र विचार आते थे, और वे बड़े सम्मान के साथ केवल "बुद्ध" या "बोधिसत्व" शब्द का उल्लेख करते थे, यह अनुभव करते हुए कि वे भव्य और महान हैं। लेकिन आज के लोगों की ऐसी धारणाएं नहीं हैं। लोग ऐसे ही अपना मुंह खोलते हैं और बुद्धों के बारे में बात करते हैं, वे बुद्धों और बोधिसत्वों के बारे में ऐसे ही बात करते हैं जैसे कि शब्द उनकी जीभ पर उग आए हों। यहां तक कि वे ऐसे ही एक बुद्ध की छवि को जैसे वे चाहते हैं, तराशते और चित्रित करते हैं, और उन्हें जहां चाहें वहां रख देते हैं। यहां तक कि कब्रिस्तानों में बुद्ध अमिताभ और सेंट मैरी की प्रतिमाएं भी लगी हुई होती हैं। यह वास्तव में ऐसा है जैसे मनुष्य देवताओं को मृतकों की देखभाल करने का निर्देश दे रहे हों, जैसे कि मनुष्य देवताओं को आदेश दे रहे हों कि यह करो और वह करो। क्या ऐसी नीयत नहीं है? आप सभी इसके बारे में सोचें: एक देवता इतना पवित्र और महान है—अपने हाथ के एक संकेत से वह पूरी मानव जाति के लिए खुशियाँ ला सकते हैं, और अपने हाथ के एक और संकेत से वह उनके लिए विनाश ला सकते हैं। फिर भी आप उनके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं? यदि मनुष्यों के प्रति उनकी दया नहीं होती, तो जब मनुष्य अज्ञानतावश बुरा काम करते हैं तो वे बिना किसी अस्तित्व के तुरंत नष्ट हो जाते। बात केवल इतनी है कि मनुष्य अभी इसे नहीं समझते हैं, इसलिए वे ऐसा करने का साहस करते हैं। वे वास्तव में बुद्धों का अपमान कर रहे हैं। यह वैसा ही है जैसा मैंने पिछली बार कहा था। पिछली बार मैंने आपको बताया था कि, यहां तक कि रेस्तरां के मेनू में भी "बुद्ध दीवार लांघते हुए" नामक व्यंजन होते हैं, इत्यादि। बुद्ध को रंग या स्वाद से कोई मोहभाव नहीं होता। यह कहना कि जब कोई बुद्ध उस स्वादिष्ट सुगंध को सूंघते हैं तो वह खाना खाने के लिए दीवार की दूसरी ओर से कूद कर आते हैं—क्या यह किसी बुद्ध का सबसे दुष्टतापूर्ण अपमान नहीं है? ऐसे व्यंजन भी हैं जिन्हें "अरहत का शाकाहारी भोजन" कहा जाता है, इत्यादि। एक अरहत को रंग या स्वाद के प्रति सामान्य मानवीय मोहभाव नहीं होता है। फिर भी आप कहते हैं कि "अरहत का शाकाहारी भोजन," वह व्यंजन है जिसे अरहत खाते हैं—क्या आप उनका अपमान नहीं कर रहे हैं? उन्हें साधारण मनुष्यों का भोजन गन्दा लगता है। इसलिए उनकी मानसिकता मनुष्यों से भिन्न है। धन और इच्छाओं से प्रेरित लोगों ने अब देवताओं और बुद्धों के प्रति इस प्रकार की स्थिति पैदा कर दी है। बुद्धों, ताओ और देवताओं की मानवीय धारणाएँ या सोचने के सामान्य मानवीय तरीके नहीं होते हैं। लेकिन जैसा कि मैंने अभी कहा, लोग बुद्ध की पूजा करने के लिए उच्च सम्मान या साधना की इच्छा के साथ नहीं जाते हैं, बल्कि बुद्ध से कुछ मांगने के लिए जाते हैं: "मुझे आशीर्वाद दें एक बेटा होने का, धन अर्जित करने का, मेरी विपत्तियों को हटाने का, मेरे कष्टों को हटाने का …” उनकी नियत सब ऐसी ही है। लेकिन बुद्ध इन बातों से संबंधित नहीं होते—वे मनुष्यों को परम मुक्ति प्रदान करते हैं। यदि आप देवताओं की तरह जीने में सक्षम होते, साधारण लोगों के बीच सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं का आनंद लेते, ढेर सारा धन रखते, और विपत्तियों व दुर्भाग्य से मुक्त होते, तो आप वास्तव में बुद्धत्व की साधना नहीं करना चाहते या देवता नहीं बनना चाहते। इतने आराम के साथ, अब आप पहले से ही एक देवता होंगे। चीजों का इस तरह से होना असंभव है।
मनुष्य जन्म-जन्मान्तर कर्म उत्पन्न कर रहे हैं। एक व्यक्ति का अपना कर्म उसे इस जीवन में और अगले जीवन में कठिनाई, पीड़ा, क्लेश, धन की कमी और कई रोग लाता है। अपने कर्मों का भुगतान करने के बाद ही आप सुख प्राप्त कर सकते हैं और खुशहाल बन सकते हैं। यदि अनुचित काम के लिए भुगतान नहीं किया जाता है तो यह अस्वीकार्य है—यह एक सिद्धांत है जो ब्रह्मांड में अस्तित्व में है। आपको ऐसा लग सकता है कि जो चीजें पिछले जन्म में हुईं और जो चीजें अगले जन्म में होती हैं उनका दो अलग-अलग लोगों से लेना-देना है। वास्तव में, जब दूसरे आपको देखते हैं, तो वे आपके पूरे अस्तित्व को देखते हैं। यह आपके नींद से जागने और यह कहने जैसा है कि आपने कल जो किया उसका आज से कोई लेना-देना नहीं है, और यह कि आपने कल जो किया वह आपके द्वारा नहीं किया गया था। लेकिन वे सब आपके द्वारा किए जाते हैं, और इसी प्रकार वे एक व्यक्ति के जीवन को देखते हैं। इसलिए इस विचार को समझाने के लिए मैं कुछ पल पहले मुख्य विषय से हट गया था: आप इन चीज़ों को सामान्य मानवीय धारणाओं के साथ नहीं देख सकते। एक साधारण व्यक्ति के रोगी होने पर दवा लेने की आवश्यकता होती है। लेकिन आपके एक साधक होते हुए, मैं आपको दवा लेने के लिए भी मना नहीं कर रहा हूँ। लेकिन क्या हम साधना की बात नहीं कर रहे हैं? और क्या हम ज्ञानप्राप्ति की बात नहीं कर रहे हैं? आपको हर चीज की ज्ञानप्राप्ति की आवश्यकता नहीं है। आप जितनी भी ज्ञानप्राप्ति कर सकते हैं वह ठीक है। यदि कोई कहता है कि वह नहीं कर सकता, "नहीं, मैं इस मोहभाव को नहीं छोड़ सकता। मुझे अभी भी दवा लेनी है। भले ही मैं साधना अभ्यास करता हूँ, फिर भी मुझे दवा लेनी पड़ती है," मैं इस विषय को कैसे देखूं? मुझे केवल उसके निम्न ज्ञानोदय गुणवत्ता के लिए खेद होता है और यह कि उसने यह परीक्षा उत्तीर्ण नहीं की है। वह सुधार कर सकता था और फल पदवी की दिशा में एक बड़ा कदम उठा सकता था, लेकिन उसने वह कदम नहीं उठाया। मुझे केवल इसके लिए खेद होता है और मैंने यह नहीं कहा कि यह व्यक्ति अब अच्छा नहीं है। न ही मैंने यह कहा है कि एक बार दवा लेने के बाद वह व्यक्ति बिल्कुल भी साधना नहीं कर सकता। ऐसा इसलिए है क्योंकि सभी का ज्ञानोदय का गुण भिन्न होता है, और सभी का जन्मजात गुण भी भिन्न होता है। जब आप सुधार करते हैं तभी आप इस परीक्षा को उत्तीर्ण कर सकते हैं और एक नई समझ प्राप्त कर सकते हैं। यदि आप सुधार नहीं कर सकते हैं और इस विषय में पूरी तरह से ज्ञानप्राप्त नहीं कर सकते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप अभी भी इस संबंध में एक साधारण व्यक्ति हैं। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि आप बिल्कुल भी अच्छे नहीं हैं।
मैं दवाई लेने और कर्म को समाप्त करने के बीच के संबंध के बारे में आपसे और अधिक बात करना चाहता हूँ। अभी-अभी मैंने कहा था कि जन्म-जन्मांतर अर्जित कर्म ही रोग का कारण बनते हैं। वह कर्म क्या है? अन्य आयामों में विद्यमान कर्म के कण जितने छोटे होते हैं—जितने छोटे उसके कण—उतनी अधिक उसकी शक्ति होती है। जब यह हमारे आयाम में प्रवेश करता है, तो यह एक सूक्ष्म जीव होता है, सबसे सूक्ष्म विषाणु। तो क्या आप कहेंगे कि रोग आकस्मिक होते हैं? इसे आधुनिक चिकित्सा या आधुनिक विज्ञान द्वारा नहीं समझा जा सकता है, जो केवल उस प्रकार की घटनाओं को समझ सकता है जो अणुओं द्वारा निर्मित सबसे बड़े कणों की परत से बने इस सतही आयाम में प्रकट होता हैं। तो इसे रोग, गिल्टी, कहीं संक्रमण, या कुछ और माना जाता है; लेकिन आज का विज्ञान लोगों के रोगी होने के मूल कारण को नहीं देख सकता है, और यह हमेशा सीमित कारणों के साथ व्याख्या करता है जिसे साधारण लोग समझ सकते हैं। निश्चित ही, जब कोई रोगी होता है, तो यह साधारणतः इस संसार के स्तर के सिद्धांतों के अनुरूप होता है, और साधारणतः इस संसार में कोई बाहरी कारक होता है जो रोग को प्रकट करता है। तब यह वास्तव में इस संसार के सिद्धांतों के अनुरूप प्रतीत होता है। वास्तव में, यह केवल एक बाहरी कारक है जो इसे इस संसार के सिद्धांतों या इस संसार की स्थिति के अनुरूप बनाता है। लेकिन मूल कारण और रोग इस आयाम में उत्पन्न नहीं होते हैं। तो अब जब आप दवा लेते हैं तो आप इस रोग या विषाणु को सतह पर मार रहे होते हैं। दवा वास्तव में सतह पर विषाणु को मार सकती है। लेकिन एक अभ्यासी का गोंग स्वचालित रूप से विषाणु और कर्म को नष्ट कर रहा होता है। लेकिन जैसे ही दवा सतह के विषाणु को मारती है जो दूसरे आयामों से प्रवेश कर चुका होता है, दूसरी तरफ विषाणु - अर्थात कर्म - को पता चल जाएगा, क्योंकि सब कुछ जीवित है, और यह आना बंद हो जाएगा। तब आपको लगता है कि आप ठीक हो गए हैं क्योंकि आपने दवाई ली। लेकिन मैं आपको बता दूं कि यह वास्तव में वहां जमा होता रहता है। जन्म-जन्मान्तर मनुष्य इन चीजों को जमा कर रहे हैं। जब संचय एक निश्चित सीमा तक पहुँच जाता है, तो व्यक्ति उपचारहीन हो जाता है और जब वह मर जाता है तो वह पूरी तरह से नष्ट हो जाता है। वह अपना जीवन गंवा देता है—हमेशा के लिए अपना जीवन गंवा देता है। यह इतना भयानक है। इसलिए यहां मैंने आपको इसका संबंध समझाया है। ऐसा नहीं है कि लोगों को दवा लेने की अनुमति नहीं है। जब एक साधारण व्यक्ति रोगी होता है तो उसे निश्चित रूप से चिकित्सा उपचार की आवश्यकता होती है।
लेकिन हम साधक इससे कैसे निपटते हैं? क्या हम आपके शरीर को शुद्ध नहीं कर रहे हैं? एक पेड़ के वार्षिक छल्लों की तरह, आपके शरीर के मूल में, और हर परत पर, जन्म दर जन्म में कर्म है। जब आप साधना अभ्यास करते हैं, मैं इस कर्म को केंद्र से बाहर धकेलता रहता हूँ; मैं धकेलता हूं, और धकेलता हूं, और धकेलता हूं, और तब तक धकेलता हूं जब तक कि मैं आपके कर्म को पूरी तरह से बाहर नहीं कर देता। और यह सब हमारे शरीर की सतह से होकर नहीं जा सकता। यदि यह सब आपके शरीर की सतह से होकर गुजरेगा तो आप इसे सहन नहीं कर पाएंगे। इसका केवल एक भाग सतह के माध्यम से बाहर आता है। लेकिन आप अभी भी अनुभव करते हैं कि आप अचानक रोगी हो रहे हैं, आप इसे बहुत असहज और पीड़ादायक पाते हैं, इसे सहन नहीं कर पाते, स्वयं को एक साधारण व्यक्ति के रूप में मानते हैं, और दवा ले लेते हैं। तब आप आगे बढ़ सकते हैं और दवा ले सकते हैं, क्योंकि हमने कभी नहीं कहा कि साधारण लोग दवा नहीं ले सकते। हम केवल यह कहते हैं कि आपके ज्ञानोदय का गुण उचित नहीं है और आपने इस परीक्षा को अच्छी तरह से उत्तीर्ण नहीं किया है। हमारे पास ऐसा कोई नियम नहीं है जो कहता है कि जब आप साधना अभ्यास करते हैं तो आप दवा नहीं ले सकते - हमारे पास ऐसा कोई कठोर नियम नहीं है। लेकिन मैं आपको फा के सिद्धांत सिखा रहा हूं। आप इस कर्म को बाहर निकालना चाहते हैं, फिर भी आप दवा लेते हैं और इसे वापस दबा देते हैं— हम आपके शरीर को शुद्ध कैसे कर सकते हैं? निश्चित ही, हम इसे आपके लिए अन्य आयामों में धकेल सकते हैं। लेकिन इस ब्रह्मांड के फा का एक सिद्धांत है: जब आपके लिए आपके कर्म हटाये जाते हैं तो आपको इस संबंध में पीड़ा सहनी पड़ती है। आपको वही कष्ट सहना होगा जो आपने पहले दूसरों को दिया था। लेकिन साधकों के लिए, हम आपको यह सब उसी तरह सहन नहीं करने दे सकते, क्योंकि आप मर जाएंगे और फिर आप साधना नहीं कर पाएंगे। एक साधक के रूप में, फल पदवी तक पहुँचने के बाद क्षतिग्रस्त हुए जीवों का बदला आप आशीषों के साथ चुकाएंगे। लेकिन आपको मानसिक पीड़ा के भाग को सहना होगा। दूसरों के ऋण के भाग को सहन करते हुए, आप कर्म का भुगतान करते हैं, क्योंकि आप पीड़ा सहन करते हैं। चीजें पृथक नहीं हैं। कर्म का भुगतान करते समय, आपको पीड़ा सहते हुए स्वयं को एक साधक के रूप में मानना चाहिए। जब आप इसे रोग नहीं मानते हैं, तो आपके पास सोचने के सामान्य मानवीय तरीके के स्थान पर वास्तव में इस विषय की उच्च-स्तरीय समझ होती है। तो क्या इस संबंध में आपके स्तर और मन में सुधार नहीं हुआ है? क्या यह मुद्दा नहीं है? यह सोचना उपहासपूर्ण है कि व्यक्ति केवल शारीरिक अभ्यास करके साधना में सुधार कर सकता है। शारीरिक अभ्यास फलपदवी के लिए एक पूरक साधन हैं।
एक व्यक्ति साधना द्वारा अपने मन को सुधारे बिना कभी भी अपने स्तर को ऊँचा नहीं उठा सकता। और ऐसा नहीं है कि कोई व्यक्ति मात्र शास्त्रों का जाप करके बुद्ध बन सकता है, जैसा कि लोग कहते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सोचते हैं कि बहुत सारे अच्छे कर्म करके कोई बुद्ध के रूप में साधना कर सकता है। ये सभी उपहासपूर्ण हैं, और वे सभी किसी उद्देश्य से किये जाने वाले अभ्यास हैं (यूवेई)। यदि आप वास्तविक साधना अभ्यास नहीं करते हैं, तो शास्त्रों के जाप का क्या उपयोग है? साधना के बिना बुद्धत्व प्राप्त करना बिल्कुल असंभव है। जब बुद्ध शाक्यमुनि धर्म (फा) की सीख दे रहे थे तब कोई शास्त्र नहीं थे, और न ही उस समय जब यीशु अपने नियमों (फा) का प्रचार कर रहे थे। लोग केवल वास्तविक साधना करते थे। क्या आप अपने मन की साधना किए बिना आगे बढ़ सकते हैं? क्या आप उस स्तर की आवश्यकताओं को पूरा किए बिना आगे बढ़ सकते हैं? क्या आप सभी प्रकार की भावुकताओं और इच्छाओं से भरे हुए, विभिन्न मोहभावों के साथ, और बुद्ध बनने की आपकी इच्छा से अधिक धन की लालसा के साथ दिव्यलोक जा सकते हैं? यह बिल्कुल असंभव है। मुझे लगता है कि आप सभी इसे समझ गए हैं। अर्थात एक साधक असाधारण होता है, और एक असाधारण व्यक्ति होने के नाते, किसी को शारीरिक परेशानी होने की स्थिति से कैसे निपटना चाहिए? साधारण लोगों को रोग होते हैं, लेकिन जहां तक आपके शरीर की बात है, मैं आपके लिए कर्म को बाहर निकाल रहा हूं। जब इसे सतह पर निकाला जाता है, तो आप असहज अनुभव करेंगे, क्योंकि मानव शरीर की सतह पर तंत्रिकाओं के सिरे सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आप रोगी हो गए हैं, और कुछ स्थितियों में यह बहुत गंभीर प्रतीत होता है। ऐसा हो सकता है। क्योंकि ऐसा हो सकता है, सभी, निम्नलिखित के बारे में सोचें। यदि आप स्वयं को एक साधारण व्यक्ति के रूप में देखते हैं और यदि आप इसे रोग के रूप में देखते हैं, तो निश्चित रूप से यह भी ठीक है, और आप आगे बढ़ सकते हैं व दवा ले सकते हैं। आपने इस परीक्षा को उत्तीर्ण नहीं किया है, और कम से कम इस विषय में आप एक साधारण व्यक्ति हैं। जब आप यह परीक्षा उत्तीर्ण कर लेते हैं तो आप इस विषय में असाधारण हो जाते हैं। लेकिन यदि आप एक बुद्ध के रूप में साधना करना चाहते हैं, तो आपकी समझ हर विषय में असाधारण होनी चाहिए। यदि आप उस मोहभाव को नहीं छोड़ते हैं, तो आप इस परीक्षा को उत्तीर्ण नहीं कर पाएंगे, और आपके लिए फलपदवी तक पहुँचना असंभव हो जाएगा। इसलिए यदि आप इस अवसर को चूक जाते हैं तो आप इस परीक्षा को उत्तीर्ण करने में विफल हो जायेंगे। हमारे कुछ स्वयंसेवक और अनुभवी शिष्य जो इसे बहुत अच्छी तरह समझते हैं, जब भी वे शिष्यों को दवा लेते हुए देखते हैं तो चिंतित क्यों हो जाते हैं? निश्चित ही, वे इससे वैसे नहीं निपट सकते जैसे मैं करता हूं। क्योंकि वे एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं, वे कहते हैं, "आप दवा नहीं ले सकते," इत्यादि, उस व्यक्ति को बता देते हैं। निश्चित ही, वह व्यक्ति शायद अभी भी इसे न समझे, "मेरे अभ्यास शुरू करने के बाद आप मुझे दवा लेने क्यों नहीं देते?" यदि उसे इसका ज्ञानोदय नहीं होता है, तो इससे निपटना सरल नहीं है। हमारे पास आपको दवा लेने से मना करने वाला कोई कड़ा नियम नहीं है। साधारण लोगों को दवा न लेने के लिए कहने के स्थान पर, मैंने केवल साधकों को दवा लेने या न लेने से संबंधित सिद्धांत सिखाया है।
हमारा फा इस संसार में साधना करने के लिए फैला है। आवश्यक नहीं कि हर साधक बुद्ध बन जाए। कुछ लोग बहुत परिश्रमी और दृढ़निश्चयी होते हैं, इसलिए वे फलपदवी की ओर तेज़ी से आगे बढ़ते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग इतने परिश्रमी न हों, इसलिए फलपदवी की ओर उनकी प्रगति बहुत धीमी होती है। कुछ लोग साधना करते हुए प्रतीत होते हैं, लेकिन वास्तव में साधना नहीं कर रहे होते हैं; वे विश्वास करते हुए प्रतीत होते हैं, लेकिन वास्तव में विश्वास नहीं करते—इसलिए वे शायद फलपदवी तक नहीं पहुँच सकते। लेकिन जहाँ तक साधना की बात है, उन्होंने शायद व्यर्थ में साधना नहीं की होगी। यदि कोई साधना में सफल नहीं होता है या इस जन्म में सफल नहीं होता है, तो देखें कि अगले जन्म में क्या होता है - शायद वह अपने अगले जन्म में यह कर पाएगा। या शायद वह इसके बाद साधना नहीं करना चाहेगा; लेकिन उसने, आखिरकार, इस दाफा में कुछ मोहभावों को छोड़ा होगा, बुध्द फा को सुना होगा, और साधना के माध्यम से वह साधारण लोगों से बेहतर बना होगा। उसने शायद अपने अगले जीवन के लिए आशीषों का संचय कर लिया होगा। अपने अगले जन्म में उसके पास बहुत अधिक धन हो सकता है या वह एक उच्च पदस्थ अधिकारी बन सकता है। इन चीजों को केवल आशीषों में बदला जा सकता था, क्योंकि वह साधना में सफल नहीं हो सका, लेकिन उसने व्यर्थ साधना नहीं की थी। यही सिद्धांत है। मुझे लगता है कि क्योंकि आप, एक साधक के रूप में, आज फा को सुनने में सक्षम हैं, मुझे आशा है कि आप सभी अंत तक साधना करते रहेंगे। हर कोई बुद्ध फा को सुनने में सक्षम नहीं होता है। वास्तव में, मैं आपको बता सकता हूं कि अमेरिका बहुत विशेष है। मैंने दो वर्ष पहले ही फा सिखाना बंद कर दिया था, लेकिन अमेरिका में बहुत सारे चीनी लोग हैं और अमेरिकियों के बीच बहुत से दयालु लोग पाए जाते हैं। मैं चाहता हूं कि वे भी फा प्राप्त करें। वास्तव में, मैं अब व्यवस्थित तरीके से नहीं सिखा रहा हूँ, और केवल विशिष्ट स्थितियों के अनुरूप सिखा रहा रहा हूँ। क्योंकि पुस्तक पहले से ही उपलब्ध है, इसलिए हर कोई पुस्तक पढ़कर सीख सकता है। स्वयंसेवक केंद्र भी अस्तित्व में हैं, इसलिए आप सभी साथ जाकर अभ्यास कर सकते हैं। किसी व्यक्ति के लिए बुध्द फा को सुनने का अवसर कई हज़ार वर्षों में एक बार आता है, और कुछ लोगों के पास वह पूर्वनिर्धारित अवसर भी नहीं होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पुनर्जन्म के छह-आवधिक पथ के दौरान, एक व्यक्ति विभिन्न पशुओं, पौधों, या पदार्थों में पुनर्जन्म ले सकता है। मनुष्य के रूप में एक बार पुनर्जन्म लेने में कई सौ या एक हजार वर्ष लग जाते हैं। पुनर्जन्म के उन कई सौ या हज़ार वर्षों के दौरान, आपको भी उचित समय पर एक मनुष्य बनना होगा, फिर आपको एक ऐसे स्थान पर पुनर्जन्म लेना होगा जहां आपको यह फा मिल सके, आपको इसे सुनने और कक्षा में भाग लेने में सक्षम होने का अवसर प्राप्त करने के लिए उचित समय पर संसार में आना होगा। निस्संदेह, इसे घटित होने के लिए इस प्रकार की अनेकों, अनेक पूर्वनिर्धारित घटनाएं होती हैं, और केवल तभी आप इस फा को प्राप्त कर सकते हैं। यह बिल्कुल सरल नहीं है।
मैं जो सिखाता हूँ वह बुद्ध फा है। मुझे लगता है कि यह बात सबके लिए स्पष्ट है। मैं साधारण लोगों के लिए सिद्धांत नहीं सिखा रहा हूँ। इसके अतिरिक्त, जिन प्रश्नों के बारे में मैंने बात की है उनमें से अनेकों पर साधारण लोगों के बीच कभी चर्चा नहीं हुई है, और वे साधारण लोगों का ज्ञान नहीं हैं।
मैंने अभी फिर से दवा लेने के मुद्दे पर बात की क्योंकि यह समस्या विभिन्न क्षेत्रों में सामने आयी है। कुछ लोग दाफा को हानि पहुंचाना चाहते हैं, और दवा न लेने के बारे में बातें करते हैं, जैसे, "जब हम इसका अभ्यास करना शुरू कर देते हैं तो हमें दवा लेने की अनुमति नहीं है।" वास्तव में, ऐसा नहीं है कि मैं आपको दवा लेने की अनुमति नहीं देता। निश्चित ही, यहां उपस्थित हमारे स्वयंसेवकों को भी अपने काम करने के तरीकों में सावधानी रखनी चाहिए और किसी को दवा न लेने के लिए विवश नहीं करना चाहिए। हम केवल सिद्धांत बताते हैं। यदि कोई साधना करना चाहता है तो कर सकता है। यदि वह साधना नहीं करना चाहता है, भले ही वह विष लेना चाहे, यह एक साधारण व्यक्ति का विषय है। यदि उसका मन अपरिवर्तित रहता है तो कोई और कुछ नहीं कर सकता। हम केवल पूर्वनिर्धारित संबंधों के बारे में बात कर सकते हैं और लोगों को अच्छा बनने का परामर्श दे सकते हैं। लोगों को विवश करना साधना नहीं है।
मैं एक और मुद्दे पर चर्चा करूँगा। क्योंकि मैं पूरी दोपहर आपके साथ रहूँगा, मेरी बात समाप्त होने के बाद आप प्रश्न पूछ सकते हैं और मैं आपके लिए उनका उत्तर दूँगा। मुख्य भूमि चीन में, "सांस्कृतिक क्रांति" के बाद पैदा हुए युवाओं में बुद्धों, बोधिसत्वों और देवताओं के विषय में समझ बहुत कम है। मैं जो शिक्षा दे रहा हूँ वह बुद्ध फा है। कुछ लोग जानते हैं कि यह अच्छा है, लेकिन फिर भी कुछ शब्दावली को नहीं समझते। वे बुध्द विचारधारा की बातों के बारे में बहुत कम जानते हैं। दूसरे शब्दों में, उन्हें बुध्द विचारधारा की स्पष्ट समझ नहीं है।
अब मैं संक्षेप में बुद्ध अमिताभ और बुद्ध शाक्यमुनि के बारे में बात करूँगा। मैं जो सिखाता हूं वह [बौद्ध] शास्त्रों से भिन्न है। जो मैं सिखाता हूँ वह पच्चीस सौ साल पहले बुद्ध शाक्यमुनि द्वारा भी सिखाया गया था, लेकिन उस समय के भिक्षुओं ने इसे बाद की पीढ़ियों तक नहीं पहुँचाया। बुद्ध शाक्यमुनि के संसार छोड़ने के पांच सौ साल बाद तक शास्त्रों को व्यवस्थित रूप से संयोजित नहीं किया गया था। जैसा कि आप जानते हैं, पांच सौ साल पहले चीन में युआन राजवंश था। आज कौन जानता है कि उस समय चंगेज खान ने क्या कहा था? लेकिन आखिरकार, यह बुद्ध फा है। यह हमेशा से, खंडित और मौखिक रूप से आगे पारित किया गया है। लेकिन बुद्ध ने जो सिखाया उससे संबंधित तत्व कई बार छूट गए - समय, स्थान, अवसर, अर्थ और श्रोता - ये अब अस्तित्व में नहीं हैं। इसके प्रसार के दौरान, क्योंकि जो लोग फलपदवी तक नहीं पहुँचे थे, उनमें मानवीय धारणाएँ थीं और वे अपनी धारणाओं में से कुछ जोड़ना पसंद करते थे, उन्होंने बुद्ध फा को बदल दिया। उन्होंने उन भागों को छोड़ दिया जिन्हें वे समझ नहीं पाए थे, और धीरे-धीरे बुद्धों, बोधिसत्वों और देवताओं का मानवीकरण कर दिया। उन्होंने उन बातों को आगे बढ़ाया जिनकी उनसे सहमति थी और जिन्हें वे समझ सकते थे। वे उन चीजों के बारे में बात करने को तैयार नहीं थे जो उनकी स्वयं की मानसिकता के अनुरूप नहीं थी या जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं थी, इसलिए उन हिस्सों को आगे पारित नहीं किया गया है।
पहले मैं बुद्ध शाक्यमुनि के बारे में बात करता हूँ। बुद्ध शाक्यमुनि एक वास्तविक ऐतिहासिक व्यक्ति थे। पच्चीस सौ साल पहले प्राचीन भारत में, वे साधकों के लिए बुद्ध विचारधारा का अपना साधना मार्ग छोड़ गए, जिसे "शील, समाधि, प्रज्ञा" कहा जाता है। जहां तक बुद्धमत का संबंध है, यह केवल आजकल राजनीति में लगे लोगों द्वारा गढ़ा गया एक नाम है। बुद्ध शाक्यमुनि ने धर्म को मान्यता नहीं दी, न ही उन्होंने यह कहा कि उनका एक धर्म था। यह मनुष्य ही हैं जिन्होंने उसकी साधना पद्धति को धर्म कहा है। वे केवल अपने मार्ग की शिक्षा दे रहे थे, अपने साधना मार्ग की शिक्षा दे रहे थे—शील, समाधि, प्रज्ञा—जो लोगों को फलपदवी तक पहुँचाने में सक्षम बना सकती थी। निश्चित ही इससे जुड़ी विशेष बातें शास्त्रों में लिखित हैं, इसलिए मैं विस्तार से नहीं बताऊंगा। जैसा कि आप सभी जानते हैं, बुद्ध अमिताभ के पास सुखावटी दिव्यलोक है, और भैषज्य बुद्ध के पास वैदूर्य प्रभालोक है। प्रत्येक बुद्ध एक स्वर्गीय दिव्यलोक की अध्यक्षता करते हैं। "फो" (बुद्ध) "पूसा" (बोधिसत्व) और "रुलाई" (तथागत) हमारे चीनी शब्द हैं। दिव्यलोकों में, तथागत को फा का राजा कहा जाता है, अर्थात, वह अपने दिव्य राज्य की अध्यक्षता करते हैं। लेकिन उनके शासन करने का तरीका उन मनुष्यों जैसा नहीं है जो प्रशासनिक साधनों और नियमों के साथ शासन करते हैं—उनके पास इस प्रकार की चीज़ें नहीं हैं। वे केवल दया और परोपकारी विचारों पर निर्भर करते हैं। और वहां हर कोई उतना अच्छा होता है। जब आप उस आदर्श को पूरा करते हैं तभी आप उस दिव्यलोक में प्रवेश कर सकते हैं। इसलिए प्रत्येक बुद्ध के पास एक दिव्यलोक है जिसकी वे अध्यक्षता करते हैं। लेकिन अतीत में किसी ने नहीं सुना कि बुद्ध शाक्यमुनि किस दिव्यलोक की अध्यक्षता करते हैं, कोई नहीं जानता था कि बुद्ध शाक्यमुनि मूल रूप से कौन थे, और कोई नहीं जानता था कि बुद्ध शाक्यमुनि का दिव्यलोक कहाँ है। कुछ भिक्षुओं ने कहा है कि बुद्ध शाक्यमुनि साहा दिव्यलोक में हैं। लेकिन मैं आपको बता दूं: साहा दिव्यलोक कहां है? यह हमारे त्रिलोक के भीतर है। वह बुद्ध का दिव्यलोक कैसे हो सकता है? कितना अपवित्र स्थान है! हर कोई वहां से चले जाना चाहता है—वह बुद्ध का दिव्यलोक कैसे हो सकता है? यहां तक कि भिक्षु भी इसके लिए कोई व्याख्या नहीं दे सकते हैं, और यह धर्म में भी लिखित नहीं है। वास्तव में, बुद्ध शाक्यमुनि बहुत ऊँचे स्तर से आए थे। यह ब्रह्मांड अत्यंत विशाल है। थोड़ी देर में मैं इसकी संरचना पर चर्चा करूँगा - ब्रह्मांड की संरचना । बुद्ध शाक्यमुनि नीचे आने से पहले जिस निम्नतम स्तर पर रुके थे, वह छठे स्तर का ब्रह्मांड था, और उस स्तर से उन्होंने सीधे मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लिया। यह छठे स्तर का दिव्यलोक नहीं था, बल्कि छठे स्तर का ब्रह्मांड था। शीघ्र ही मैं वर्णन करूँगा कि यह ब्रह्मांड कितना विशाल है।
ब्रह्माण्डों के छठे स्तर में उनका एक दिव्य राज्य है। उन्होंने वहां एक दिव्य राज्य बनाया, जिसे दफान दिव्यलोक कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, बुद्ध शाक्यमुनि ने दफान दिव्यलोक से मानव संसार में पुनर्जन्म लिया। धर्म की शिक्षा देने और लोगों को उद्धार प्रदान करने के लिए—अपने शिष्यों का उद्धार करने के लिए—उन्होंने दफान दिव्यलोक से मानव संसार में पुनर्जन्म लिया। और बुद्ध शाक्यमुनि द्वारा शिक्षित और रक्षा किये गए शिष्यों को कम से कम छठे स्तर के ब्रह्माण्ड या उससे ऊपर तक साधना करनी होगी—उतनी ऊँचाई तक उन्हें साधना करनी होगी। यही कारण है कि जब से बुद्ध शाक्यमुनि नीचे आये, तब से वे अपने शिष्यों का ध्यान रख रहे हैं जब वे पुनर्जन्म लेते हैं और साधना करते हैं, और कभी भी अपने दिव्यलोक में नहीं लौटे हैं। तीन लोकों में एक स्थान है जिसे दफान दिव्यलोक कहा जाता है, और वहीं पर वे है। दफान दिव्यलोक का नाम भी उन्होंने ही रखा था। उन्होनें इसे दफान स्वर्ग कहा क्योंकि वे दफान दिव्यलोक से आये थे। वह वहां से अपने शिष्यों का ध्यान रख रहे हैं। उनके सभी शिष्यों पर अंकन किया गया है। उन्होंने उन शिष्यों को "卍" चिन्ह के अंकन प्रदान किए। उन सभी को उनके शिष्यों के रूप में चिह्नित किया गया है। उच्च स्तरों से कोई भी एक ही दृष्टि में बता सकता है कि बुद्ध शाक्यमुनि के शिष्य कौन हैं और कौन नहीं। क्योंकि उन्हें एक उच्च स्तर तक साधना करनी होती है - बुद्ध शाक्यमुनि उन्हें एक बहुत उच्च आयाम तक बचाना चाहते हैं - वे एक जीवन काल में साधना में सफल नहीं हो सके। इसलिए जन्म दर जन्म, उन्होंने पच्चीस सौ वर्षों से अधिक समय से बार-बार साधना की है। अब, इस अंतिम बार, उन्हें फलपदवी तक पहुँचना है। इस जीवनकाल में उनके फलपदवी पर पहुँचने के बाद, वे अपने सभी शिष्यों को अपने साथ ले जायेंगे और वे सभी साहा दिव्यलोक छोड़ देंगे। हमारे दाफा शिष्यों में से कई, जो फा प्राप्त कर रहे हैं, शाक्यमुनि के चिह्नित शिष्य हैं। लेकिन शाक्यमुनि के चिन्हित शिष्यों में से अधिकांश भिक्षु हैं, यद्यपि साधारण लोगों में भी ऐसे लोग हैं। साधारण लोगों में से बहुत से लोग पहले से ही हमारा यह फा प्राप्त कर रहे हैं। वास्तव में, क्योंकि हमने इस बिंदु तक इसकी चर्चा की है, मैं आपको यह भी बताना चाहता हूँ कि इस फा के साथ जो मैं सिखा रहा हूँ, ऐसा नहीं है कि आपको हमारे फालुन दिव्यलोक में जाना है। जो मैं प्रदान कर रहा हूँ वह संपूर्ण ब्रह्मांड के सिद्धांत हैं। मैं कुछ इतना विशाल सिखा रहा हूँ। वे सब भी इस फा को प्राप्त करना चाहते हैं। क्योंकि नया ब्रह्माण्ड पहले ही बन चुका है, और फा ब्रह्माण्ड का सुधार कर रहा है, एक व्यक्ति ब्रह्माण्ड के फा को अपनाकर ही वहाँ वापस जा सकता है। बहुत पहले ही बुद्ध शाक्यमुनि ने अपने शिष्यों के लिए व्यवस्थित रूप से यही व्यवस्था की थी—वे इस दिन के बारे में जानते थे। मैं जानता हूँ कि कई भिन्न-भिन्न दिव्यलोकों के शिष्य या अन्य उचित साधना मार्गों के शिष्य दाफा में फा प्राप्त कर रहे हैं। बुद्ध शाक्यमुनि के अधिकांश शिष्य हान क्षेत्र में हैं। अब भारत में कोई नहीं है। लेकिन उनमें से कई ऐसे भी हैं—बहुत कम— जो संसार में विभिन्न स्थानों में फैले हुए हैं। उनमें से ज्यादातर हान क्षेत्र में हैं। हान क्षेत्र मुख्य भूमि चीन है।
अभी-अभी मैंने संक्षेप में बुद्ध शाक्यमुनि और उनके शिष्यों की स्थिति का वर्णन किया। आगे मैं बुद्ध अमिताभ के बारे में बात करूँगा। जब लोग बुद्ध अमिताभ के बारे में बात करते हैं, तो वे सभी जानते हैं कि एक सुखावटी दिव्यलोक है। सुखावटी दिव्यलोक कहाँ है? और बुद्ध अमिताभ कौन हैं? जहां तक बुद्ध अमिताभ का संबंध है, बौद्ध धर्मग्रंथों में उनका वर्णन पाया जा सकता है, इसलिए मैं इस भाग के बारे में बात नहीं करूंगा। जो भाग शास्त्रों में दर्ज नहीं है, मैं उसकी बात करूँगा। जैसा कि आप जानते हैं, बुद्धों ने ब्रह्मांड की आंशिक संरचना के बारे में जो कहा है, लोग उसका प्रचार कर रहे हैं, और यह कि सुमेरु दिव्यलोक नामक एक स्थान है - अर्थात, सुमेरु पर्वत के विषय में। हमारा वर्तमान ग्रह पृथ्वी और तीनों लोकों के भीतर और बाहर ब्रह्मांडीय पिंड सुमेरु पर्वत के दक्षिण में हैं, और इसे जम्बु-द्वीप कहा जाता है। पृथ्वी इस सुमेरु पर्वत के दक्षिण में है। कुछ लोग इसे समझने का प्रयत्न करते हैं, "क्या यह सुमेरु पर्वत हिमालय है? क्या उस समय का भारत जम्बू-द्वीप था?” ये भिन्न विषय हैं। वह एक बुद्ध है। वह सांसारिक समझ के दृष्टिकोण से नहीं बोलते—वह एक देवता के दृष्टिकोण से सिद्धांत सिखाते हैं। उनकी सोच का शुरुआती बिंदु मनुष्यों की सोच से अलग है।
यह सुमेरु पर्वत विद्यमान है। फिर मनुष्य इसे क्यों नहीं देख सकते? और इसे दूरबीनों से भी क्यों नहीं देखा जा सकता? ऐसा इसलिए है क्योंकि यह सबसे बड़े अणुओं की परत से बने कणों से बना हुआ नहीं है। मैं आपको बता दूं: अणुओं से बने कण - न कि परमाणुओं से बने कण - और यहां तक कि उन कणों से बने पदार्थ जो अणुओं से और हमारे सबसे ऊपरी सतह से एक परत नीचे के कणों से बने होते हैं, वे पहले से ही मनुष्यों के लिए अदृश्य होते हैं। यह सुमेरु पर्वत तो परमाणुओं से बना है, इसलिए मनुष्य इसे बिल्कुल नहीं देख सकते। लेकिन हाल ही में खगोल विज्ञान और ब्रह्मांड विज्ञान के क्षेत्र में लोगों ने एक ऐसी घटना देखी हो सकती है कि ब्रह्मांड में चाहे कितनी भी प्रत्यक्ष आकाशगंगाएँ हों, उस स्थान पर अब कोई आकाशगंगा नहीं है। आकाशगंगाएँ यहाँ हर स्थान पर हैं; बहुत सारी मिल्की वे आकाशगंगाएँ हैं। फिर भी एक निश्चित स्थान पर कुछ भी नहीं है, जैसे कि कोई स्पष्ट विभाजन हो। वे इसे "ब्रह्मांडीय दीवार" कहते हैं। वे यह नहीं समझा सकते कि ऐसा क्यों है। वहां कोई आकाशगंगा क्यों नहीं है? वास्तव में, वे सुमेरु पर्वत द्वारा अवरुद्ध हैं, क्योंकि वह पर्वत अविश्वसनीय रूप से विशाल है। यह कितना विशाल है? इसका शीर्ष दूसरे स्तर के ब्रह्मांड के केंद्र में है—यह हमारे छोटे ब्रह्मांड से और विस्तृत है। यह वास्तव में बहुत विशाल है। तो इतना विशाल पर्वत मनुष्य की कल्पना से बिल्कुल परे है। इसके अन्य भागों को देखना मनुष्यों के लिए असंभव है। पृथ्वी इतनी छोटी सी गेंद है, फिर भी यदि आप बीजिंग देखना चाहते हैं, तो आप इसे पृथ्वी के दूसरी ओर से बिल्कुल नहीं देख सकते। यह इतना विशाल पर्वत है, आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि यह कितना विशाल है। उन्होंने यह भी कहा कि सुमेरु पर्वत के कई अन्य भागों में अन्य दिव्यलोक भी अस्तित्व में हैं। हम इसके बारे में बहुत अधिक नहीं कहेंगे।
फिर ऐसा पर्वत क्यों है? आईये इस सुमेरु पर्वत की बात करते हैं। मैं आपको बता सकता हूं कि यह सुमेरु पर्वत वास्तव में बुद्ध अमिताभ, बोधिसत्व अवलोकितेश्वर, और बोधिसत्व महास्थमप्राप्त के रूप और छवि का प्रकटीकरण है। इसे एक रूप और छवि कहना पूरी तरह से उचित नहीं है। क्योंकि वे बुद्ध हैं, उनका एक मानव रूप है। वे एक रूप में एकत्रित भी हो सकते हैं या पदार्थ में बिखर सकते हैं, लेकिन उनके पास एक रूप और छवि होती है। वे रूपांतरण के माध्यम से पदार्थ में बिखर सकते हैं। जब मनुष्य बुद्धों को नहीं देख पाते, तो वे कहते हैं कि बुद्धों के शरीर नहीं होते। उनके शरीर परमाणुओं से बने होते हैं, इसलिए निश्चित रूप से आप उनके शरीर नहीं देख सकते हैं, और इसलिए आपका यह कहना उचित है कि उनके शरीर नहीं हैं। तो क्योंकि यह सुमेरु पर्वत परमाणुओं से बना है, इसलिए हमारे मानवीय नेत्र इसे नहीं देख सकते। लेकिन एक प्रकार से यह बुद्ध अमिताभ, बोधिसत्व अवलोकितेश्वर, और बोधिसत्व महास्थमप्राप्त का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार यह सुमेरु पर्वत एक नहीं बल्कि तीन पर्वत हैं। साथ ही, यह गतिमान भी है। केवल हमारे इस भौतिक आयाम में ही चीजें मृत या गतिहीन प्रतीत होती हैं; अन्य सभी आयामों में चीजें गतिमान हैं। जैसा कि आप जानते हैं, अणु गतिमान हैं, परमाणु भी गतिमान हैं, और सब कुछ गतिमान है, इलेक्ट्रॉन परमाणु नाभिक के चारों ओर परिक्रमा करते हैं, सब कुछ गतिमान है - संपूर्ण पदार्थ गतिमान है। तो सुमेरु पर्वत कभी सीधी रेखा बनाता है तो कभी त्रिकोण आकार; यह बदलता रहता है। जब लोग इसे भिन्न-भिन्न कोणों से या भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में देखते हैं, तो हो सकता है कि उन्हें इसका वास्तविक रूप न दिखे। यदि वे एक सीधी रेखा में आ जाते है, तो आप उन्हें एक ही पर्वत के रूप में देखेंगे। अतीत में कुछ साधक इसे देख सकते थे, लेकिन उन्होंने इसका भिन्न प्रकार से वर्णन किया। यह उचित इसलिए है क्योंकि उन्होंने इसकी विशिष्ट स्थिति नहीं देखी। तो क्योंकि यह बुद्ध अमिताभ, बोधिसत्व अवलोकितेश्वर, और बोधिसत्व महास्थमप्राप्त का प्रतीक है, इसका क्या प्रयोजन है? वास्तव में जिस सुखावटी दिव्यलोक की बात लोग करते हैं, वह सुमेरु पर्वत के ठीक भीतर है। फिर भी यह पर्वत हमारे सामने उपस्थित पदार्थ की हमारी मानवीय अवधारणा से भिन्न है। सुमेरु पर्वत के नीचे सबकुछ जल है। समय सीमित है, इसलिए मैं इतना ही कहूंगा।
अब मैं ब्रह्मांड के अंतरिक्ष की रचना के बारे में बात करूँगा। ब्रह्मांड कितना बड़ा है? मानव भाषा के साथ इसका वर्णन करना कठिन है, क्योंकि मानव भाषा अपर्याप्त है, और यहां तक कि यदि इसका वर्णन किया जा सकता है, तो भी आपका मस्तिष्क इसे समाहित नहीं कर पाएगा और आप इसे समझ नहीं पाएंगे। यह अविश्वसनीय रूप से विशाल है। यह इतना विशाल है कि यह केवल अकल्पनीय है—यह देवताओं के लिए भी अकल्पनीय है। इसलिए कोई बुद्ध, ताओ, या देवता यह समझाने में सक्षम नहीं है कि ब्रह्मांड कितना बड़ा है। जैसा कि मैंने अभी कहा, जिस ब्रह्मांड को हम साधारणतः समझते हैं, वह वास्तव में एक छोटे से ब्रह्मांड का विस्तार है। अमेरिका की अपनी पिछली यात्रा के दौरान, मैंने उल्लेख किया था कि लगभग 2.7 अरब से अधिक हमारी आकाशगंगा (मिल्की वे) जैसी आकाशगंगाओं का विस्तार - यह इस आंकड़े के आसपास है, 3 अरब से कम - एक ब्रह्मांड का गठन करता है। और इस ब्रह्मांड का एक आवरण, या सीमा होती है। तो यह वह ब्रह्मांड है जिसका हम साधारणतः उल्लेख करते हैं। लेकिन इस ब्रह्मांड से परे सुदूर स्थानों पर अन्य ब्रह्मांड हैं। एक निश्चित विस्तार के भीतर इस प्रकार के अन्य तीन हजार ब्रह्मांड होते हैं। और फिर इन तीन हज़ार ब्रह्मांडों के बाहर एक आवरण होता है, और इसे एक दूसरे स्तर का ब्रह्मांड कहा जाता है। इस दूसरे स्तर के ब्रह्मांड से परे लगभग तीन हजार ब्रह्मांड हैं जो इस दूसरे स्तर के ब्रह्मांड के आकार के हैं। उनके बाहर एक आवरण है, और उन्हें तीसरे स्तर का ब्रह्मांड कहा जाता है। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे छोटे कणों को मिलाकर परमाणु नाभिक बनते हैं, परमाणु नाभिक मिलाकर परमाणु बनते हैं, और परमाणुओं को मिलाकर अणु बनते हैं - यह ठीक उसी प्रकार है जैसे एक प्रणाली में सूक्ष्म कणों को मिलाकर बड़े कण बनते हैं। मैं जिस ब्रह्मांड का वर्णन कर रहा हूं, वह केवल इस एक प्रणाली के भीतर चीजों का रूप है। ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे यह भाषा इसका वर्णन कर सके; मानव भाषा इसे स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में सक्षम नहीं है। इस एक अवस्था में यह स्थिति है। लेकिन अनेकों, अनेक प्रणालियां हैं - इतनी कि जितने असंख्य परमाणु जो मिलकर अणु बनाते हैं - पूरे ब्रह्मांड में इसी प्रकार फैली हुई हैं। क्या आप बता सकते हैं कि इस ब्रह्मांड में हमारे लघु ब्रह्मांड के आकार के कितने ब्रह्मांड हैं? कोई ठीक-ठीक नहीं बता सकता। अभी-अभी मैंने दूसरे स्तर के ब्रह्मांडों, तीसरे स्तर के ब्रह्मांडों पर चर्चा की, और कहा कि बुद्ध शाक्यमुनि छठे स्तर के ब्रह्मांड से आए थे। यह केवल इस एक प्रणाली की, इस प्रकार की प्रणाली की चर्चा थी। जैसे छोटे कण मिलकर बड़े कण बनाते हैं एवं बड़े कण मिलकर और भी बड़े कण बनाते हैं, यह एक प्रणाली के भीतर है। लेकिन कणों की इस एक प्रणाली के अतिरिक्त और भी बहुत हैं। ब्रह्मांडीय ढांचे में विभिन्न स्तरों पर असंख्य कण फैले हुए हैं।
ब्रह्मांड अत्यंत जटिल है। मैंने इस पर और अधिक विशेष रूप से चर्चा तब की जब मैंने स्वीडन में सम्मेलन आयोजित किया था। मैंने ब्रह्मांडों की इक्यासी परतों के बारे में बात की। वास्तव में, इक्यासी से कहीं अधिक परतें हैं—उन्हें मानव संख्या के साथ नहीं गिना जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सबसे बड़ी मानव संख्या झाओ (खरब) है। बुद्धों द्वारा उपयोग की जाने वाली सबसे बड़ी संख्या कल्प है। एक कल्प दो अरब वर्षों के बराबर होता है—दो अरब वर्षों का एक कल्प बनता है। एक व्यक्ति कल्प से भी यह नहीं गिन सकता कि ब्रह्मांड की कितनी परतें हैं— दिव्यलोकों की कितनी परतें हैं यह नहीं, बल्कि ब्रह्मांड की कितनी परतें हैं—यह इतना विशाल है। जहाँ तक मनुष्यों की बात है, वे अविश्वसनीय रूप से नगण्य हैं। जैसा कि मैंने पिछली बार उल्लेख किया था, पृथ्वी धूल के एक कण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, और यह नगण्य है। फिर भी इस विस्तार के भीतर आयामों की असंख्य और जटिल संरचनाएँ हैं। आयामों की ये संरचनाएं कैसी हैं? मैंने पिछली बार भी इसका वर्णन किया था। हमारी मानव जाति किस स्तर के आयाम में रहती है? हम आणविक कणों की सबसे बड़ी परत से बने सतही पदार्थ में रहते हैं; हम अणुओं और ग्रहों के बीच रहते हैं - एक ग्रह भी एक कण है, और विशाल ब्रह्मांड के भीतर, यह भी धूल का एक नगण्य कण है। मिल्की वे आकाशगंगा भी धूल का एक छोटा सा कण है। यह ब्रह्माण्ड - लघु ब्रह्माण्ड जिसका मैंने अभी वर्णन किया - यह भी धूल का एक नगण्य कण है। सबसे बड़े कण जो हमारी मानवीय नेत्रों को दिखाई देते हैं वे ग्रह हैं, और मानव जाति को दिखाई देने वाले सबसे छोटे कण अणु हैं। हम मनुष्य अणुओं और ग्रहों के कणों के बीच में रहते हैं। इस आयाम में होने के कारण, आपको लगता है कि यह विशाल है; एक अलग दृष्टिकोण से, यह वास्तव में अत्यंत संकीर्ण और छोटा है।
मैं एक दूसरे दृष्टिकोण से बताता हूँ। क्या परमाणुओं और अणुओं के बीच का स्थान एक आयाम नहीं है? यह समझना कठिन हो सकता है। मैं आपको बता दूँ कि वर्तमान में वैज्ञानिक जानते हैं कि परमाणुओं से अणुओं की दूरी दो लाख पंक्तिबद्ध परमाणुओं के जितनी होती है। लेकिन वस्तुएं जितनी छोटी होती हैं, अर्थात जितने छोटे कण होते हैं, उनका संपूर्ण आयतन उतना ही अधिक होता है, क्योंकि वे एक विशेष स्तर पर एक तल बनाते हैं और पृथक बिंदु नहीं होते हैं। हालांकि, अणु वास्तव में बड़े होते हैं। पदार्थ के कण जितने बड़े होते हैं, या जितने बड़े कण होते हैं, उनके आयाम का आयतन उतना ही कम होता है - उनके आयाम का संपूर्ण आयतन उतना ही कम होता है। यदि आप उस आयाम में प्रवेश करते हैं, तो आप पाएंगे कि यह एक व्यापक आयाम है। निश्चित ही, आपको उस आयाम में प्रवेश करने के लिए उस अवस्था के अनुरूप होना होगा। यदि आप इसे मानवीय विचारों, मानवीय अवधारणाओं, और मनुष्यों द्वारा सामने दिखाई देने वाले भौतिक संसार को समझने के तरीके, से समझते हैं, तो यह आपको कभी समझ में नहीं आएगा, और न ही आप उस स्थिति में प्रवेश कर पाएंगे। मानव जाति का दावा है कि उसका विज्ञान इतना उन्नत है। यह दयनीय है! मानव जाति अणुओं के आयाम के पार जाने में बिल्कुल भी सफल नहीं हुई है, और यह अन्य आयामों को नहीं देख सकती है—फिर भी मनुष्य स्वयं के साथ आत्मसंतुष्ट हैं—मानव जाति परमाणुओं से बने आयाम को तो बिल्कुल भी नहीं देख सकती है। मैं आपको बता सकता हूं, यह आयामों की प्रणालियों का एक व्यापक वर्गीकरण है: परमाणुओं और परमाणु नाभिकों के बीच एक आयाम होता है, परमाणु नाभिकों और क्वार्कों के बीच एक आयाम होता है, एवं क्वार्कों और न्यूट्रिनो के बीच भी एक आयाम होता है। जहाँ तक यह प्रश्न है कि पदार्थ के सबसे मूल स्रोत की ओर बढ़ते हुए कितने स्तर अस्तित्व में है, इसे मानव संख्या या यहां तक कि बुद्धों द्वारा उपयोग किए जाने वाली कल्प संख्याओं के साथ भी नहीं गिना जा सकता है।
यदि मानव जाति वास्तव में पदार्थ को समझना चाहती है, तो वह इसे केवल वर्तमान मानव ज्ञान के भीतर ही समझ सकती है। मनुष्य कभी नहीं जान पाएंगे कि ब्रह्मांड के पदार्थ का सबसे मूल क्या है, और वह कभी भी इसकी जांच करने में सक्षम नहीं होंगे। इसलिए यह ब्रह्मांड हमेशा के लिए मनुष्यों के लिए एक रहस्य बना रहेगा। निश्चित ही, इसका अर्थ यह नहीं है कि उच्च स्तर के प्राणी इसे कभी नहीं जान पाएंगे; साधारण लोगों के पास इस ब्रह्मांड को जानने का कोई मार्ग नहीं है, जबकि साधकों के पास है—केवल साधना के माध्यम से। मानव जाति के तकनीकी साधनों के साथ, मानव जाति कभी भी बुद्ध के आयाम में महान क्षमताओं को प्राप्त करने या आयामों व ब्रह्मांडों के इतने सारे स्तरों के पार देखने में सक्षम नहीं होगी। क्योंकि मनुष्यों की विभिन्न भावनाएँ और इच्छाएँ होती हैं - सभी प्रकार के मोहभाव – यदि वे वास्तव में बुद्ध के आयाम में पहुँचते हैं, तो अंतरिक्ष युद्ध या ब्रह्मांडीय युद्ध छिड़ जाएंगे। लेकिन देवता मानव जाति को ऐसा करने की अनुमति नहीं देंगे। इसलिए जब मानव जाति का विज्ञान एक विशेष स्तर पर पहुंच जाता है तो यह निश्चित रूप से मानव जाति के लिए खतरनाक है। क्योंकि मानव नैतिकता उस उच्च स्तर तक नहीं पहुंच पाएगी, इसलिए मानव सभ्यता नष्ट कर दी जाएगी। यह अनुचित नहीं है—यह इसलिए है क्योंकि मनुष्य पर्याप्त रूप से अच्छे नहीं हैं और इसलिए कि मानव नैतिकता उस गति से बढ़ नहीं सकती है। लेकिन इसके विपरीत, यदि मानव नैतिकता उस गति से आगे बढ़ सकती है, तो मनुष्य देवता बन जाएंगे और उन्हें देखने के लिए मानवीय साधनों की आवश्यकता नहीं होगी - वे यह सब केवल अपनी आँखें खोलकर और एक दृष्टि डालकर देख पाएंगे। ब्रह्मांड ऐसा ही है। यदि आप इसके बारे में जानना चाहते हैं, तो आपको इस आयाम को पार करना होगा।
मैंने अभी जो वर्णन किया वह विभिन्न आकारों के बड़े कणों से बने संसार थे। वास्तव में इनसे कहीं अधिक हैं। यहां तक कि अणुओं के सबसे पास के आयाम के भीतर भी कई, कई आयाम हैं जो मनुष्यों के लिए अदृश्य हैं। जैसा कि मैंने अभी कहा, अणुओं से बने सबसे बड़े कण वह पदार्थ है जो सबसे बाहरी सतह को बनाते हैं जहां हम मनुष्य हैं - स्टील, लोहा, लकड़ी, मानव शरीर, प्लास्टिक, पत्थर, मिट्टी और यहां तक कि कागज, इत्यादि। ये सभी चीजें जो मानवजाति देखती है, सबसे बड़े कणों की परत से बनी हैं, जो सबसे बड़े अणुओं की परत से बनी हैं। इन्हें देखा जा सकता है। आप उन अणुओं से बने कणों का आयाम भी नहीं देख सकते हैं जो सबसे बड़े कणों की परत के कणों की तुलना में थोड़े छोटे हैं। फिर, ये अणु और भी छोटे कणों का आयाम बना सकते हैं। सतह पर सबसे छोटे कणों और सबसे बड़े कणों के मध्य, जो सभी अणुओं से बने होते हैं, आयामों के कई, कई स्तर अस्तित्व में होते हैं। दूसरे शब्दों में, अणु अलग-अलग आकार के कण बनाते हैं, जिससे ये अत्यंत जटिल और विभिन्न आणविक आयाम बनते हैं। लोगों को विश्वास नहीं होता है कि कैसे कोई अचानक अदृश्य हो सकता है और फिर अचानक कहीं और प्रकट हो सकता है। भले ही उसका शरीर अणुओं से बना है, यदि वे अत्यंत सूक्ष्म हैं (यह साधना के द्वारा संभव है) तो वह इस आयाम से पार जा सकता है। वह अचानक अदृश्य हो जाता है और आप उसे नहीं देख सकते; तब वह अचानक कहीं और प्रकट होता है। यह बहुत सरल है।
अभी-अभी मैंने आयामों की संरचना के बारे में बताया। मैंने इस पर पिछली बार की तुलना में अधिक विस्तार से चर्चा की। मैं लोगों को बहुत अधिक नहीं बता सकता, क्योंकि उन्हें इतना नहीं जानना चाहिए। मैंने जो कुछ भी आपको बताया है, मनुष्य संभवतः जाँच द्वारा इसका पता नहीं लगा सकते। मानव जाति का आधुनिक विज्ञान वास्तव में ब्रह्मांड, मानव जाति और जीवन की गलत समझ के साथ एक गलत नींव पर विकसित हुआ है। इसलिए साधना के संसार में हम साधक आज के विज्ञान से बिल्कुल सहमत नहीं हैं और सोचते हैं कि यह एक गलती है। निस्संदेह, साधारण लोगों ने इसे इसी तरह सीखा है; इसे इतने सारे क्षेत्रों में विभाजित किया गया है, और आप सभी ने अपने-अपने क्षेत्र में काफी उपलब्धियां प्राप्त की हैं। लेकिन इसका आधार ही गलत है। इसलिए आप मनुष्य जो समझते हैं वह हमेशा सच्चाई से काफी परे होगा।
मानव जाति के लिए, विज्ञान को समझना हमेशा से टटोलने की एक प्रक्रिया रही है। लोकोक्ति "अंधों द्वारा हाथी के रूप का अनुमान लगाना" - आजकल यह विज्ञान ऐसा ही है। यह हाथी का पैर या सूंड को छूता है और कहता है कि विज्ञान ऐसा ही है। सच तो यह है कि वह पूरा सच नहीं देख सकता। मैंने अभी-अभी ऐसा क्यों कहा? मानव जाति अब सोचती है कि मानव क्रम-विकास के माध्यम से विकसित हुआ है, लेकिन विकासवाद का सिद्धांत बिल्कुल भी मान्य नहीं है। हम साधना के संसार में अनुभव करते हैं कि मनुष्य अपना अपमान कर रहे हैं। हम देखते हैं कि मनुष्य अपने आप को बंदरों के साथ जोड़ते हैं, और यह हास्यप्रद लगता है। जो भी हो मनुष्य विकासवाद से नहीं आया है। जब डार्विन ने क्रम-विकास के अपने सिद्धांत को प्रस्तुत किया तो यह त्रुटियों से भरा था, जिसमें सबसे बड़ी त्रुटि थी बंदर से मनुष्य तक और पाषाण युग जीवन से लेकर आधुनिक जीवन तक के विकास में बीच की अवधियों का अभाव - वे न केवल मनुष्यों के लिए, बल्कि अन्य जीवों और पशुओं के लिए भी अस्तित्व में नहीं है। इसे कैसे समझाया जा सकता है? वास्तव में, भिन्न-भिन्न ऐतिहासिक कालों में मनुष्यों के रहने की भिन्न-भिन्न अवस्थाएं होती हैं। अर्थात्, मनुष्यों के रहने का वातावरण एक निश्चित काल के मनुष्यों के अनुकूल होता है।
क्योंकि हम इस विषय पर हैं, मैं आज के मनुष्यों की धारणाओं के बारे में भी थोड़ी सी चर्चा करूँगा। नैतिक पतन के कारण, कई अवधारणाओं में कुछ बदलाव आए हैं। अतीत में कई भविष्यवक्ताओं ने भी कहा था कि एक निश्चित समय पर लोग स्वयं को कुरूप बौनों की तरह प्रकट करेंगे। आप देख सकते हैं कि कैसे वे अपने बालों को लाल रंग में रंगते हैं, या बीच में केवल बालों की एक पट्टी छोड़ते हैं और दोनों तरफ से बाल मुंडाए जाते हैं। यह भी कहा गया था कि एक समय मनुष्यों के साथ कुत्तों से भी बदतर व्यवहार किया जाएगा। बहुत से लोग कुत्तों को अपने बेटे या अपने बच्चों के रूप में मानते हैं, उन्हें दूध पिलाते हैं, उन्हें ब्रांड के कपड़े पहनाते हैं, उन्हें बच्चा गाड़ियों में घुमाते हैं, और उन्हें "मेरा बेटा" कहते हैं। इस बीच कई लोग सड़कों पर भोजन के लिए भिक्षा माँगते हैं—मैं भी ऐसे लोगों से मिला हूँ—वे अमेरिका में भी पाए जा सकते हैं। वे अपना हाथ बढ़ाते हैं, "कृपया, मुझे चवन्नी दे दें।" वे सचमुच कुत्तों से भी बदतर स्थिति में हैं। लेकिन मैं आपको बता दूँ कि यदि धरती पर मनुष्य नहीं होते तो कुछ भी नहीं होता। यह मनुष्यों के अस्तित्व के कारण ही है कि पृथ्वी पर यह सभी चीज़ें हैं। सभी पशु, जीव-जंतु, पेड़-पौधे मनुष्यों के कारण पैदा होते हैं, मनुष्यों के कारण नष्ट होते हैं, मनुष्यों के कारण बनते हैं और मनुष्यों के उपयोग के लिए होते हैं। मनुष्यों के बिना कुछ भी नहीं होगा। पुनर्जन्म का छह आवधिक मार्ग भी मनुष्यों के कारण अस्तित्व में है। पृथ्वी पर सब कुछ मनुष्यों के लिए बनाया गया है। आजकल ये सभी अवधारणाएं उलटी होती जा रही हैं। पशु मनुष्यों के समान कैसे हो सकते हैं? आजकल पशु मानव शरीर को ग्रसित करते हैं और उनके स्वामी बन जाते हैं— दिव्यलोक इसे सहन नहीं कर सकता! यह कैसे स्वीकार्य हो सकता है? मनुष्य सबसे महान हैं; वे साधना द्वारा देवता या बुद्ध बन सकते हैं। इसके अतिरिक्त, सभी मनुष्य उच्च स्तर से आये हैं, जबकि इनमें से कई जीव यहाँ बनाए गए थे - पृथ्वी पर बनाए गए थे। मैंने इस मुद्दे पर बातों ही बातों में चर्चा की है।
हमें नहीं लगता कि क्रम-विकास का सिद्धांत जिस का मैंने पहले उल्लेख किया था वह कभी हुआ था। युगों-युगों से मानव जाति कई बार विभिन्न कालखंडों की सभ्यताओं से गुजरी है। जितनी बार मानव नैतिकता पतित होती थी, उसकी सभ्यता नष्ट की जाती थी। अंत में बहुत कम लोग बचते। वे पिछली सभ्यता से थोड़ी सी संस्कृति विरासत में प्राप्त करते और एक और पाषाण युग से गुजरने के बाद विकसित होते। पाषाण युग केवल एक काल तक ही सीमित नहीं है - बहुत से पाषाण युग हो चुके हैं। आज के वैज्ञानिकों के सामने कुछ समस्याएँ आयी हैं: कई पुरातात्विक खोजें केवल एक काल से नहीं हैं। लेकिन जब वे उन्हें क्रम-विकास के सिद्धांत में बिठाने का प्रयत्न करते हैं, तो वे तथ्यों के अनुसार इसकी व्याख्या नहीं कर पाते हैं। हमने पाया है कि इस पृथ्वी पर मनुष्य, अर्थात् विभिन्न ऐतिहासिक कालों के लोग, अपने पीछे विभिन्न कालों के सांस्कृतिक अवशेष छोड़ गए हैं। सभी आधुनिक लोग कहते हैं कि प्राचीन मिस्र में पिरामिड मिस्रवासियों द्वारा बनाए गए थे। लेकिन उनका आज के मिस्रवासियों से किसी भी तरह का कोई लेना-देना नहीं है। अर्थात मनुष्यों और राष्ट्रों को अपने ही इतिहास की अनुचित समझ है। पिरामिड और मिस्रवासियों का एक दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है। वे पिरामिड एक पूर्व ऐतिहासिक सभ्यता के दौरान बनाए गए थे, और एक महाद्वीपीय बदलाव के दौरान पानी के नीचे डूब गए थे। जब उसके बाद की सभ्यता आने वाली थी और नए महाद्वीप बन रहे थे, वे पानी की गहराई से ऊपर आ गये। लोगों का वह समूह बहुत पहले समाप्त हो गया था, और फिर बाद में वर्तमान के मिस्रवासी आए। इन पिरामिडों के कार्यों की खोज करने के बाद, मिस्रवासियों ने ऐसे कुछ छोटे पिरामिड बनाए। उन्हें ज्ञात हुआ कि पिरामिड ताबूतों को अंदर रखने के लिए बहुत अच्छे थे, इसलिए उन्होंने उनमें ताबूत रखे। कुछ नव निर्मित थे, कुछ सुदूर अतीत से आए थे। इसने आज के लोगों को यह पता लगाने में असमर्थ बना दिया है कि वे वास्तव में किस काल के थे। इतिहास को गड़बड़ा दिया गया है।
बहुत से लोग कहते हैं कि मायान संस्कृति आज के मेक्सिकोवासियों से संबंधित थी। वास्तव में, इसका मेक्सिकोवासियों से कोई लेना-देना नहीं था, जो केवल स्पेनियों और स्वदेशी लोगों की मिश्रित नस्ल है। दूसरी ओर, मायान संस्कृति, इतिहास में पिछली सभ्यता के काल की थी। वह मानव जाति मेक्सिको में नष्ट हो गई थी, और केवल कुछ ही लोग बच पाए थे। लेकिन मायान संस्कृति का सीधा संबंध मंगोलियाई लोगों से था। मैं यहां विस्तार में नहीं जाऊंगा। मानव जाति अपने स्वयं के ऐतिहासिक मूल को नहीं जानती है। काकेशियन (श्वेत जाति) के लिए भी यही सच है। पिछली बड़ी बाढ़ के दौरान—पिछली मानव सभ्यता एक बड़ी बाढ़ से नष्ट हो गई थी—पृथ्वी पर सभी बड़े पहाड़ जिनकी ऊंचाई दो हजार मीटर से कम थी, जलमग्न हो गए थे, और केवल दो हजार मीटर से ऊपर बसे हुए लोग बच गए थे। नोआह की बड़ी नाव की कथा सत्य है। उस बड़ी बाढ़ के दौरान पश्चिमी संस्कृति पूरी तरह से नष्ट हो गई थी और पूर्वी संस्कृति का भी विनाश हो गया था। लेकिन पहाड़ी लोग जो हिमालय और कुनलुन पर्वतों के क्षेत्रों में रहते थे और जो ग्रामीण लोगों की तरह थे वे भाग्यशाली थे कि बच गए—कुनलुन पहाड़ों में रहने वाले चीनी लोग बच गए। उस समय पूर्वी संस्कृति अच्छी तरह से विकसित थी; पीली नदी का चित्र (हतु), लुओ नदी लेखन (लुओश्यु), परिवर्तनों की पुस्तक (आई चिंग), ताई ची, आठ त्रिआकृतियां (बगुआ), और इसी तरह की अन्य चीजें अतीत से विरासत में मिली थीं। लोग कहते हैं कि वे इस व्यक्ति या बाद की पीढ़ी के उस व्यक्ति द्वारा बनाए गए थे। उन लोगों ने ही उन्हें संशोधित किया और उन्हें फिर से सार्वजनिक कर दिया। वे उन लोगों द्वारा बिल्कुल भी नहीं बनाए गए थे, और वे सभी पूर्व ऐतिहासिक संस्कृतियों से थे। हालाँकि ये चीज़ें चीन में चली आ रही थीं, इतिहास में चीन के विकास के दौरान ऐसी चीजें और भी अधिक थी। प्राचीन काल में और भी चीजें संरक्षित की गयी थी, लेकिन जैसे-जैसे वे आगे पारित हुयी, वे कम और कम होती गई। तो यह एक समृद्ध सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और गहरी ऐतिहासिक मूल वाला देश है - वह चीन है। दूसरी ओर, कोकेशियान संस्कृति उस बड़ी बाढ़ से पूरी तरह से जलमग्न हो जाने के बाद मिट गयी थी। उस समय यूरोप महाद्वीप के साथ एक और महाद्वीप था जो डूब गया। वह उनका सबसे विकसित क्षेत्र था, और वह भी डूब गया। तो काकेशियनों ने शून्य से - जहाँ कोई सभ्यता नहीं बची थी - वहां से उनके आज के विज्ञान तक फिर से विकास किया है।
प्राचीन चीन का विज्ञान पश्चिम के इस प्रायोगिक विज्ञान से भिन्न है। कई पुरातत्वविदों ने मेरे साथ इन मुद्दों पर चर्चा की है और मैंने उन्हें सब कुछ समझाया है। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि ऐसा ही है, क्योंकि उनके पास कई कठिन प्रश्न थे जिनकी व्याख्या नहीं की जा सकती थी। जैसा कि मैंने अभी कहा, मानव जाति की ब्रह्मांड की समझ संभवतः बहुत आगे नहीं जा सकती। वर्तमान में, कई वैज्ञानिकों के शोध का शुरुआती बिंदु गलत है। वे लोग, विशेष रूप से, वे जिन्होंने अपने क्षेत्र में कुछ उपलब्धियां प्राप्त की हैं, वे उन्हें छोड़ नहीं पा रहे हैं। जो उन्होंने समझा है उसे परिभाषित कर दिया है और सीमाएँ निर्धारित कर दी हैं। श्रोताओं में आप में से कई व्यक्ति खुले विचारों वाले चीन से बाहर पढ़ने वाले छात्र, पीएचडी, मास्टर डिग्री धारक हैं। आप पाएंगे कि उनकी परिभाषाएँ उनके कार्यक्षेत्र के दायरे में सही हैं, लेकिन एक बार जब आप उनकी समझ और उनके दायरे से परे चले जाते हैं तो परिभाषाएँ गलत और प्रतिबंधात्मक हो जाती हैं। वास्तव में एक कुशल वैज्ञानिक वही है जो इन सीमाओं को पार करने का साहस करता है। यहां तक कि आइंस्टीन ने जो कहा वह सही था, वह भी केवल उनकी समझ के दायरे में ही सही है; उस दायरे से परे, उन्होंने जो कहा वह गलत पाया गया। क्या आपको सिद्धांत समझ आ रहे हैं? जब मनुष्य ऊँचे उठेंगे, जब आपकी सोच की स्थिति उच्च स्तर के सत्य तक पहुँचेगी, और जब आप उच्च स्तरों पर पहुँचने वाले होंगे, तो आप पाएंगे कि निम्न स्तरों की समझ गलत है। यह इस प्रकार है।
क्या पदार्थ के बारे में मनुष्यों की समझ गलत नहीं है? मनुष्य सबसे बड़े आणविक कणों और ग्रहों की परत से बने सतही पदार्थ के मध्य के आयाम में खड़े हैं, लेकिन वे अब भी भ्रमित हैं। वे केवल इसी के भीतर इस प्रकार और उस प्रकार से विकसित हुए हैं, और सोचते हैं कि यह पूर्ण विज्ञान है, यह पदार्थ की एकमात्र समझ है, और यह सबसे उन्नत है। यह केवल इस विशाल और जटिल ब्रह्मांडीय स्थान में एक अत्यंत, अत्यंत छोटे कण के भीतर भौतिक जगत को समझना है, और यह एक छोटे आयाम तक ही सीमित है। मैंने पहले जिन ग्रहों की संरचना का वर्णन किया है, वह केवल एक प्रणाली है। आप जिस आयाम को समझ गए हैं वह एक सूक्ष्म प्रणाली के भीतर है - एक प्रणाली जो धूल के एक कण के आकार की है, और अनगिनत अरबों आयामों में से एक है। अर्थात, यह एक छोटे से आयाम के भीतर की समझ है। क्या आप कहेंगे कि यह सही है? इसलिए मानव जाति के विज्ञान के विकास और समझ की प्रारंभिक नींव गलत है। जीवन और मानव जाति की उत्पत्ति के बारे में बात करना और भी जटिल है, इसलिए मैं उनकी चर्चा नहीं करूँगा। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि मैं और अधिक कहूँगा तो इसमें जीवन की उत्पत्ति सम्मिलित हो जाएगी, जो बहुत जटिल है। इसके अतिरिक्त, यदि मैं बहुत अधिक बताता हूँ और बहुत ऊँचे स्तरों की बातें करता हूँ, तो लोग उस पर विश्वास नहीं करेंगे, क्योंकि मनुष्यों के विचार तो मानवीय ही होते हैं। जब मैं यहां बोल रहा हूं, तो देवता इसे सुनते ही विश्वास करते हैं, क्योंकि उनके विचार देवताओं के हैं। वे इसे अपने आयाम के अनुसार समझते हैं, और उनके सोचने का तरीका मनुष्यों से बिल्कुल भिन्न है।
क्या मेरा इसे इस प्रकार समझाना आप लोगों के लिए स्पष्ट था? मैं आपसे पूछता हूं: जिस प्रकार मैं बोल रहा हूं, क्या आप इसे समझ पा रहे हैं या नहीं? (तालियाँ) कुछ ऐसा है जो मैं अक्सर बताता हूँ, और मैंने कल ही बार-बार इस पर ज़ोर दिया था: पूर्वनिर्धारित संबंध (युआन फेन)। हम में से बहुत से लोग हमेशा इस दाफा को और अधिक लोगों को बताना चाहते हैं। कुछ लोगों के साथ ऐसा होता है कि जैसे ही आप उन्हें इसके बारे में बताते हैं, वे सोचते हैं कि यह बहुत अच्छा है और इसे स्वयं सीखना चाहते हैं। इन लोगों का शायद कोई पूर्वनिर्धारित संबंध होता है। दूसरों के साथ, यहाँ तक कि आपके परिवार के सदस्यों के साथ भी, जब आप उन्हें इसका परिचय देते हैं, तो वे सुनना नहीं चाहते हैं और वे इस पर विश्वास नहीं करते हैं—वे इस पर विश्वास नहीं करते हैं चाहे आप कुछ भी कहें। मैं आपको बता दूं कि उनका शायद कोई पूर्वनिर्धारित संबंध नहीं है। निश्चित ही, यह स्थिति केवल पूर्वनिर्धारित-संबंध व्यवस्था के कारण नहीं होती है। कुछ लोगों के लिए यह उनके निम्न ज्ञानोदय के गुण या बड़ी मात्रा में कर्म के कारण हो सकती है।
आज मैं पूर्वनिर्धारित संबंध को चुनुँगा और उसके बारे में बात करूँगा। पूर्वनिर्धारित संबंध क्या है? मैंने इसे पहले समझाया है। साधना जगत ने हमेशा पूर्वनिर्धारित संबंध पर बल दिया है। पूर्वनिर्धारित संबंध कैसे स्थापित होता है? वास्तव में, मैं आपको बता दूं, हम लोगों द्वारा साधना के संसार में चर्चा किए गए पूर्वनिर्धारित संबंध को कम समय के इतिहास के संदर्भ में नहीं समझाया जा सकता है। यह एक व्यक्ति के किसी एक जीवनकाल, या यहाँ तक कि कई जन्मों, या उससे भी अधिक समय से आगे चला जाता है। यह पूर्वनिर्धारित संबंध समाप्त नहीं होता है। यह समाप्त क्यों नहीं होता है? अभी-अभी जब मैंने कर्मों के भुगतान की चर्चा की, तो मैंने उल्लेख किया कि किसी व्यक्ति के जीवन को कैसे देखा जाता है। जब एक जीवन को देखा जाता है, तो उसके अस्तित्व की संपूर्णता को देखने की आवश्यकता है - न कि उसके जीवन कालों में से केवल एक जीवन काल को। यह ऐसा है जैसे सोने के बाद, क्या आप आज स्वीकार नहीं करते कि कल आप ही थे? ऐसा नहीं है! इसलिए किसी व्यक्ति के पूर्वनिर्धारित संबंध में बहुत लंबी अवधि सम्मिलित होती है। अच्छी चीजें आगे पारित की जा सकती हैं, और बुरी चीजें भी आगे पारित की जा सकती हैं। दूसरे शब्दों में, लोगों के बीच कारणात्मक संबंध भी समाप्त नहीं होते हैं। अधिकांश समय, लोग जिस पूर्वनिर्धारित संबंध का उल्लेख करते हैं, वह परिवार का पूर्वनिर्धारित संबंध होता है, अर्थात्, एक पति और पत्नी के बीच पूर्वनिर्धारित संबंध—अक्सर इसी का अधिकतर उल्लेख किया जाता है। वास्तव में, मैं पति-पत्नी के इस पूर्वनिर्धारित संबंध के बारे में पहले भी बात कर चुका हूँ। यह साधारण लोगों का विषय है। क्योंकि पूर्वनिर्धारित संबंध की चर्चा हो रही है, मैं इसके बारे में बात करूँगा। यह कैसे बनता है? अधिकतर मामलों में, यह साधारणतः ऐसा होता है: पिछले जीवन में एक व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति पर एक उपकार किया था और वह व्यक्ति इसे चुका नहीं सका—शायद वह एक निम्न-श्रेणी का अधिकारी था या उस जीवन में बहुत दरिद्र था। उस उपकार से उसे बहुत लाभ हुआ, इसलिए वह उसको चुकाना चाहता था। तब इसका परिणाम पति-पत्नी के बीच पूर्वनिर्धारित संबंध हो सकता है। यह भी हो सकता है कि पिछले जन्म में कोई किसी और से प्रेम करता था या वे दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते थे, लेकिन उनका वह पूर्वनिर्धारित संबंध नहीं था और परिवार नहीं बना सके ; तो इसका परिणाम पति और पत्नी के रूप में अगले जन्म के लिए पूर्वनिर्धारित संबंध हो सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक व्यक्ति की इच्छा बहुत महत्वपूर्ण है - आप क्या चाहते हैं और आप क्या करना चाहते हैं। यदि आप कहते हैं, "मैं बुद्धत्व की साधना करना चाहता हूँ," तो एक बुद्ध आपकी सहायता कर सकते हैं। ऐसा क्यों? यह एक विचार वास्तव में अनमोल है, क्योंकि इतने कठिन वातावरण में आप अभी भी बुद्धत्व की साधना करना चाहते हैं। दूसरी ओर, यदि कोई व्यक्ति असुर बनना चाहता है, तो उसे भी रोका नहीं जा सकता। यदि वह बुरे काम करने पर तुला हुआ है तो आप उसे कैसे रोक सकते हैं? वह आपकी बात नहीं सुनता है और उन्हें करने पर जोर देता है। इसलिए व्यक्ति की इच्छा बहुत महत्वपूर्ण है।
साथ ही, सगे संबंधी और अच्छे मित्र, छात्र या शिष्य होने, या लोगों के बीच दया या द्वेष होने से भी पूर्वनिर्धारित संबंध बनते हैं, जो सभी आपको एक परिवार या एक ही समूह से संबंधित कर सकते हैं। आपके समाज में सामाजिक संबंध हैं, और इससे लोगों के बीच तनाव को दूर किया जा सकता है व दयालुता और द्वेष को चुकाया जा सकता है। ये सभी पूर्वनिर्धारित संबंध हैं—उनका उल्लेख इसी प्रकार किया जाता है। वे एक जन्म से नहीं आते; वे कई जन्मों या पिछले जन्म से आ सकते हैं। यह इस तरह की स्थिति को दर्शाता है। हमने यह भी पाया है कि, क्योंकि इस प्रकार का संबंध है, अर्थात, एक व्यक्ति के एक जीवनकाल में दयालुता और द्वेष है, सगे संबंधी और अच्छे मित्र हैं, पत्नी और बच्चे हैं, इत्यादि, तो यह बहुत संभव है कि इस समूह के भीतर दयालुता और द्वेष है—कोई किसी के साथ अच्छा व्यवहार करता है, कोई किसी के साथ बुरा व्यवहार करता है, एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का ऋण चुकाता है... ये चीजें फिर उन्हें अगले जन्म में एक समूह के रूप में पुनर्जन्म लेने का कारण बनेंगी। लेकिन वे एक साथ नहीं आते; ऐसा नहीं है कि वे एक साथ पुनर्जन्म लेंगे। इस संसार में उनके आने का समय भिन्न-भिन्न होगा, इसलिए कोई बड़ी उम्र का होगा तो कोई कम उम्र का। वैसे भी, इस समूह के लोग, जो भिन्न-भिन्न समय पर पुनर्जन्म लेंगे, उनके बीच कुछ निश्चित संबंध होंगे। आप पाएंगे कि कोई व्यक्ति जो सड़क पर चल रहा है और आपके समूह से संबंधित नहीं है, जिसका आपके साथ पूर्वनिर्धारित संबंध नहीं है, या आपके साथ कुछ भी लेना देना नहीं है, वह आपसे पूरी तरह से किसी दुसरे संसार का प्रतीत होगा। ऐसा लगेगा कि आपका उससे कोई लेना-देना नहीं है। आपको ऐसे लोग भी मिलेंगे जो भिन्न प्रकार के लोग लगते हैं। उस दशा में ये लोग आपके समूह से नहीं हैं, और आपका उनके साथ बिल्कुल भी कोई पूर्वनिर्धारित संबंध नहीं है। इसलिए लोग साधारणतः एक समूह के रूप में पुनर्जन्म लेते हैं और भिन्न-भिन्न समय पर आते हैं—कुछ माता-पिता होंगे, कुछ बच्चे होंगे, कुछ मित्र होंगे, कुछ शत्रु होंगे, और कुछ परोपकारी होंगे। यह पूर्वनिर्धारित संबंध है जिसके बारे में मैंने अभी बात की।
निस्संदेह, जो साधना अभ्यास करते हैं वे भी ऐसे पूर्वनिर्धारित संबंध से मुक्त नहीं हो सकते हैं। चूंकि आप साधना का अभ्यास करना चाहते हैं... अतीत में यह कहा गया था कि यदि कोई व्यक्ति साधना अभ्यास करता है, तो उसके पूर्वजों को भी सद्गुण (द) दिया जाएगा और उन्हें भी लाभ होगा। ऐसा नहीं है कि यदि आप साधना अभ्यास करते हैं और एक बुद्ध के रूप में साधना करते हैं तो उन्हें अपने पापों और कर्मों के लिए भुगतान नहीं करना पड़ेगा एवं वे सभी बुद्ध बन जाएंगे—इसकी अनुमति नहीं है। इसका अर्थ है कि जब आप साधना अभ्यास करते हैं, वे पहले से जानते थे कि आप इस जीवन में फा प्राप्त करेंगे, शायद आपके आस-पास के लोगों में से कुछ ऐसे हैं जो आपके पूर्वजन्म के संबंधी हैं, और शायद आप ऐसे लोगों को फा प्राप्त करने के लिए सक्षम करेंगे जिनमें आपके प्रति दया या द्वेष है—यह इस प्रकार के संबंध को उत्पन्न कर सकता है। निस्संदेह, साधना का परिवार के प्रति स्नेह से कोई लेना-देना नहीं है। परिवार के प्रति स्नेह से कोई लेना-देना नहीं होना इस बाधा को तोड़ता है, इसलिए जो लोग अकेले साधना करते थे या अपनी शिक्षाओं को एक ही व्यक्ति को पारित करते थे वे अपने शिष्यों का चयन स्वयं करते थे और उन्हें स्वयं चुनते थे। पिछली पीढ़ियों में लोग इसी प्रकार साधना करते थे। विश्वव्यापी उद्धार वह पूर्वनिर्धारित संबंध है जिसके बारे में हम आज बात कर रहे हैं। मैं जिस पूर्वनिर्धारित संबंध की बात करता हूं, वह यहां आप सभी श्रोताओं से संबंधित है। इस बात की बहुत संभावना है कि फा को प्राप्त करने के लिए आपका पूर्वनिर्धारित संबंध है। तो यह पूर्वनिर्धारित संबंध कैसे बना? यहाँ बहुत से लोग फा को प्राप्त करने के लिए आये थे, वे एक उद्देश्य से आये थे। [मेरे] निकट संबंधी, अच्छे मित्र और विभिन्न जन्मों के शिष्य भी हो सकते हैं, या वे जो अन्य पूर्वनिर्धारित संबंधों के परिणामस्वरूप हैं। लेकिन साधना में साधारण मानवीय संबंध सम्मिलित नहीं है— ऐसा कुछ भी नहीं है। मैं अक्सर कहता हूँ कि कुछ लोग फा को प्राप्त करने आए थे। हो सकता है कि उन्होंने अतीत में इस प्रकार की कामना की हो और इस फा को प्राप्त करने के लिए आना व कष्ट सहना चाहते हों—यह भी एक कारक है। इसलिए मैं अक्सर कहता हूं कि मैं आपको सलाह देता हूं कि इस बार इस जीवन में क्षणिक अनुचित विचारों के कारण फा को प्राप्त करने का अवसर न चूकें, अन्यथा आप इस पर हमेशा के लिए पछताएंगे और इसकी क्षतिपूर्ति नहीं कर पाएंगे। वास्तव में, मैंने पाया है कि पूर्वनिर्धारित संबंधों का यह धागा, अधिकतर, कसकर, लोगों को एक साथ बांधे हुए है। कोई भी नहीं छूटा है और वे सभी फा प्राप्त कर रहे हैं। अंतर केवल परिश्रम और प्रगति के स्तर में है।
आगे मैं एक और विषय पर चर्चा करूँगा: साधना का रूप। मैंने कल भी इसका जिक्र किया था। हमारे कुछ विद्यार्थियों ने विवाह करने या न करने का मुद्दा उठाया है। उनमें से कुछ विवाह नहीं करना चाहते हैं और पहाड़ों में जाकर साधना करना चाहते हैं; कुछ भिन्न विचार रखते हैं। हमारी दाफा साधना में बहुत से अन्य शिष्यों का भी यही विचार है। फिर भी हर कोई जानता है कि यह फा जो मैं प्रदान कर रहा हूँ वह मुख्य रूप से साधारण मानव समाज में साधना अभ्यास के लिए है, साधना के लक्ष्य के रूप में लोगों की अपनी मुख्य चेतना (जू यिशी) या मुख्य आत्मा (जू युआनशेन) को ऊँचा उठाना। क्योंकि आप सचेत रहते हुए और जानते हए कठिनाइयों को सहन कर रहे हो, और अपने स्वयं के हित की हानि को स्पष्ट रूप से देखकर आपका हृदय विचलित नहीं होता है, क्या आप स्वयं की साधना नहीं कर रहे हैं? यदि यह फा प्राप्त करने वाले आप नहीं हैं, तो यह कौन है? यदि आप वास्तव में पहाड़ों में साधना अभ्यास करने के लिए जाते हैं और इन संघर्षों और घर्षण से बचते हैं, तो आपकी साधना धीमी होगी। जब कोई व्यक्ति कई वर्षों के दौरान अपने मोहभावों को धीरे-धीरे समाप्त करता है, और इस फा को प्राप्त नहीं करता है, तो संभावना है कि यह उसकी सह आत्मा (फु युआनशेन) है जिसकी साधना की गयी है। क्योंकि जब आप पहाड़ों की गहराई में साधना का अभ्यास करेंगे तब आपके पास ये स्थितियाँ नहीं होंगी, तो आपको शायद ध्यानमुद्रा में बैठने और ध्यान में जाने की आवश्यकता होगी—लंबे समय तक ध्यान में रहना होगा। उस स्थिति में, आप स्वयं नहीं जान पाएंगे कि आप साधना अभ्यास कर रहे हैं या नहीं, क्योंकि आप इस जटिल वातावरण में वास्तव में स्वयं को सुधार नहीं रहे होंगे। यह ऐसा ही है। जिन लोगों ने धार्मिक जीवन ग्रहण कर लिया है वे भी अपनी मुख्य आत्माओं की साधना कर सकते हैं, लेकिन साधारण मानव समाज ही वह स्थान है जहाँ एक व्यक्ति के मन और मस्तिष्क को सबसे बेहतर तरीके से तपाया जा सकता है।
अतीत की साधना विधियों में से जिनके बारे में हमने सुना है - चाहे वे इतिहास में किसी भी धर्म या साधना पद्धति की हों - जो आगे पारित किया गया है वह एक व्यक्ति को पहाड़ों या मठों में प्रवेश करके साधना अभ्यास करना, सांसारिक संबंधों को तोड़ना और परिवार के लिए मोह त्यागना सिखाता है। यहाँ तक कि जब किसी व्यक्ति के माता-पिता मठ में उससे मिलने जाते थे, तो वह उन्हें पहचानने से इनकार कर देता था: " आप किसे ढूंढ रहे हैं?" "मैं आपको ढूंढ रहा हूँ। आप मेरे बेटे हो। "अच्छा, बुद्ध अमिताभ। संरक्षक, आपने गलती से मुझे कोई और समझ लिया है। मेरा नाम है...” क्योंकि उसे पहले ही एक धर्म नाम दे दिया गया होता था। "मैं बुध्द विचारधारा का शिष्य हूँ। मैं आपका बेटा नहीं हूं। वे सचमुच सांसारिक संबंध तोड़ देते हैं। जहां तक इन दिनों के भिक्षुओं की बात है, निश्चित ही, वे अब साधना नहीं करते; और वे धन भी अर्जित करते हैं और कुछ घर भेजते हैं। सच्ची साधना में [उन साधना मार्गों में] सांसारिक संबंधों को तोड़ने की आवश्यकता होती है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि एक बार जब कोई भिक्षु बन जाता है, तो उसे अब साधारण मनुष्य नहीं माना जाता है? यही कारण है। वह पहले से ही एक देव है—अर्ध-देव। यद्यपि एक व्यक्ति अब [उन साधना मार्गों में] साधना नहीं कर सकता, बहुत से लोग अक्सर उन प्राचीन साधना मार्गों के दृष्टिकोण से बाधित होते हैं, और दाफा की साधना भी उस तरीके से करना चाहते हैं। यह भविष्य में संभव होगा, लेकिन अभी इसके लिए कोई परिस्थितियाँ नहीं हैं। फा जो मैं आज प्रदान कर रहा हूं वह वर्तमान में केवल इस साधना रूप को धारण कर सकता है, और मैं, आपका गुरु, स्वयं भी पहाड़ों में नहीं हूं। इसलिए जब भी आप साधना के बारे में सोचते हैं, तो आप हमेशा पहाड़ों में जाने के बारे में नहीं सोच सकते, जब भी आप साधना के बारे में सोचते हैं, तो भिक्षु या भिक्षुणी बनने के बारे में नहीं सोच सकते, जब भी आप साधना के बारे में सोचते हैं, तो विवाह न करने के बारे में नहीं सोच सकते, या जब भी आप साधना के बारे में सोचते हैं, तो आप साधारण लोगों के तरीके बदलने के बारे में नहीं सोच सकते। ऐसा नहीं है। साधना के कई मार्ग हैं। चौरासी हजार साधना मार्गों में से, केवल हमारा मार्ग ही नहीं है जो इस प्रकार साधना करता है। इसलिए मैं जो कह रहा हूँ वह यह है कि हमें अतीत की कई साधना विधियों या लंबे समय से स्थापित अवधारणाओं से प्रभावित नहीं होना चाहिए। आज जो मैं आपको प्रदान कर रहा हूँ वह एक साधना का बिल्कुल नया मार्ग है जो वास्तव में आपको सबसे तेज़ी से बचाए जाने में सक्षम कर सकता है। जहां तक भविष्य की बात है, उस समय साधना के तब के मार्ग होंगे। वास्तव में, जैसा कि मैंने पुस्तक में कहा, किसी के लिए साधना अभ्यास करना सरल नहीं है। आप साधना करते हैं और साधना करते रहते हैं, लेकिन आप वास्तव में स्वयं की साधना नहीं कर रहे हैं और आपको यह पता भी नहीं होता है!
मैं आपको बता सकता हूँ कि सुदूर अतीत में, कई देवों ने पाया कि किसी व्यक्ति की मुख्य आत्मा को बचाना बहुत कठिन था, इसलिए उन्होंने सह आत्मा को बचाने का तरीका अपनाया। एक [देव] ने लोगों को इस तरह से बचाया और इसे बहुत अच्छा पाया, फिर दूसरे ने भी पाया कि लोगों को इस प्रकार बचाना बहुत अच्छा था, फिर उन सभी ने लोगों को इस प्रकार बचाया, और इसका परिणाम लोगों को बचाने का यह स्वीकृत रूप बन गया। लेकिन यह लोगों के प्रति न्याओचित नहीं है—एक व्यक्ति साधना अभ्यास करता है, फिर भी कोई और बचाया जाता है। ठीक इसी अन्याय के कारण, वे इसे सार्वजनिक करने या लोगों को बताने का साहस नहीं करते हैं। लोगों के जानने के लिए मैंने इसे उजागर कर दिया है। क्यों? क्योंकि मैं चाहता हूं कि लोग वास्तव में फा प्राप्त करने में सक्षम बनें, इस स्थिति को बदलना है, और आपको स्वयं की साधना करने में सक्षम बनाना है। साथ ही, लोगों के इस प्रकार साधना अभ्यास करने से समाज को लाभ होता है - जब आप स्वयं में सुधार करते हैं तो आप निश्चित रूप से समाज में एक अच्छे व्यक्ति होते हैं, इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। इसलिए मेरा आशय ठीक इस बात में बदलाव करने का है। लेकिन कुछ देव कई वर्षों तक उसी प्रकार से साधना करने के बाद वहां तक पहुंचे—उन्होंने वहां तक ठीक वैसे ही साधना की जैसे सह आत्माएं साधना करती हैं। इसलिए वे सभी मेरे द्वारा आपको इसे प्रदान करने में बाधा डाल रहे थे। आप सभी इसके बारे में सोचें: इस फा को प्रदान करना बिल्कुल भी सरल नहीं है, और इसे प्राप्त करना भी बिल्कुल सरल नहीं है। आखिरकार देवताओं, बुद्धों और ताओ ने अनुभव किया कि मैं क्या कर रहा हूं और देखा कि परिणाम वास्तव में अच्छे हैं—अब वे जानते हैं।
जब मैंने चीन में शिक्षा दी तब चीजें बहुत कठिन थीं। निश्चित ही, अब इसकी शिक्षा देना अपेक्षाकृत सरल है; विशेष रूप से अमेरिका में आपके लिए फा को सुनना पहले से ही बहुत सरल है। जैसा कि मैंने पहले कहा, हमारा यह साधना रूप अतीत की अवधारणाओं से प्रभावित नहीं होना चाहिए; हम इस तरह साधना करते हैं। निस्संदेह, आपके इस समूह के द्वारा अपनी साधना समाप्त करने के बाद, भविष्य में लोगों के पास साधना अभ्यास करने का अपना तरीका होगा। भविष्य के लोग फा के बारे में इतना नहीं जान पाएंगे। हमने यह फा प्रदान किया है क्योंकि यह इतिहास में एक विशेष अवधि है। और अधिक आगे के भविष्य के लोग यह नहीं जान पाएंगे कि मैं कौन हूं, और हम उनके लिए मेरी छवि भी नहीं छोड़ेंगे। उन ऑडियो और वीडियो टेपों को भविष्य के लिए नहीं छोड़ा जा सकता, भले ही आपने उन्हें रिकॉर्ड किया हो; वे सब मिटा दिए जाएँगे। पहले जब बुद्ध शाक्यमुनि साधना में अपने शिष्यों का मार्गदर्शन कर रहे थे, उन्होंने अपने शिष्यों को धन या संपत्ति रखने की अनुमति नहीं दी, जिससे कहीं ऐसा न हो कि वे उन भौतिक हितों के प्रति मोहभाव विकसित कर लें। इसलिए उन्हें एक वस्त्र और एक भिक्षापात्र के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं रखने की आज्ञा दी गई। लेकिन अकसर मनुष्यों में बहुत से ऐसे मोहभाव होते हैं जिनसे छुटकारा पाना कठिन होता है। एक निश्चित समय के दौरान, बहुत से लोग भिक्षापात्र एकत्रित करने लगे। कुछ ने कहा, "मेरा यह भिक्षापात्र कांस्य का है, मेरा यह भिक्षापात्र रत्न का है, मेरा यह भिक्षापात्र अच्छा दिखता है, मेरा यह भिक्षापात्र चांदी का है।" कुछ भिक्षुओं ने ढेर सारे भिक्षापात्र इकट्ठे कर लिए। बुद्ध शाक्यमुनि ने तब कहा था: "यदि आपको संपत्ति के प्रति इतना मोहभाव हैं, तो आप घर भी जा सकते हैं क्योंकि आपके पास घर पर सब कुछ है और आप जाकर चीजों को इकट्ठा करने और उन्हें रखने में सक्षम होंगे। क्यों आप एक भिक्षा का पात्र भी नहीं छोड़ सकते? एक भिक्षु को सब कुछ त्याग देना चाहिए। क्यों न भिक्षापात्र एकत्र करने के विचार से भी छुटकारा पा लिया जाए? आपने अपने खजाने छोड़ दिए हैं, क्यों आपको अभी भी भिक्षापात्र से मोहभाव हैं?" इसके द्वारा, बुद्ध शाक्यमुनि का यह अर्थ था कि व्यक्ति को उस एक विचार या मोहभाव के एक अंश को भी नहीं रखना चाहिए - इसे हटाने की आवश्यकता है। शाक्यमुनि ने उन्हें वह मोहभाव नहीं रखने दिया।
बुद्ध शाक्यमुनि के समय में, एक भिक्षु का भिक्षापात्र बहुत छोटा हुआ करता था, और वे एक बार में केवल एक समय के भोजन के लिए भिक्षा माँग सकते थे। भिक्षु आज इतना बड़ा भिक्षापात्र रखते हैं। अतीत में एक भिक्षा के पात्र का उपयोग किया जाता था, लेकिन अब वे एक उलटी घंटी के आकर के भिक्षापात्र का उपयोग करते हैं - वे एक उलटी घंटी के आकर के भिक्षापात्र के साथ भिक्षा माँगने जाते हैं। और जो भोजन आप उन्हें देते हैं वे उसे बिल्कुल भी नहीं चाहते—वे धन चाहते हैं। भौतिक हितों और धन से इतना प्रबल मोहभाव होना—क्या वह साधना है? मैं आपको बता सकता हूँ कि एक साधक के लिए धन सबसे बड़ी बाधा है। मैंने अभी जो कहा वह भिक्षुओं के बारे में था। हालाँकि, दाफा की साधना भौतिक वस्तुओं को महत्व नहीं देती, बल्कि मन को देती है। क्योंकि आप साधारण मानव समाज में कार्य करते हुए साधना अभ्यास करते हैं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि आपके पास कितना धन है, लेकिन यह केवल तभी मायने रखता है यदि आपका धन और संपत्ति से मोहभाव नहीं हटाया जाता है। भले ही आपका घर सोने की ईंटों से बना हो, लेकिन यह बात आपके मन में नहीं है और आप इसके बारे में अधिक नहीं सोचते हैं। साधारण लोगों के बीच साधना करते हुए लोग सभी प्रकार के कार्य करते हैं। जब आप व्यवसाय करते हैं तो आप धन कमाते हैं—यदि यह आपके मन में नहीं है तो इससे क्या अंतर पड़ता है? यदि आप इसके बारे में अधिक नहीं सोचते हैं और इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है कि आपके पास यह है या नहीं, तो आप इस परीक्षा में उतीर्ण हो गए हैं। आपका घर अभी भी सोने का हो सकता है—इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। हम चाहते हैं कि आप इस मोहभाव से छुटकारा पाएं। साधना का अर्थ भौतिक वस्तुओं से छुटकारा पाना नहीं है। केवल इसी प्रकार आप सांसारिक जगत में साधना के अनुरूप हो रहे हैं। यदि सभी साधना करते हैं और कोई कुछ नहीं करता, तो यह समाज कैसे चलेगा? यह संभव नहीं है। हम केवल लोगों के मन को महत्व देते हैं, सीधे लोगों के मन पर लक्ष्य करते हैं, और आपके भौतिक चीजों से छुटकारा पाने के स्थान पर वास्तव में आपसे आपका नैतिकगुण सुधार कराते हैं। आपको इस बारे में स्पष्ट होना होगा कि यह पारंपरिक साधना के मार्गों से कैसे अलग है। लेकिन इस पर आपकी गंभीरता से परीक्षा ली जाएगी कि कहीं आपके इस प्रकार के मोहभाव तो नहीं हैं।
जहाँ तक हमारे दाफा में साधना अभ्यास करने वाले साधकों की बात है, हम इस प्रकार का मार्ग अपनाते हैं। आपको इन मोहभावों को कम करने की आवश्यकता है। जहां तक भविष्य में पेशेवर साधकों की बात है, वे भिक्षापात्र लेकर भोजन के लिए भिक्षा मांगेंगे, पैदल यात्रा करेंगे, और इधर-उधर भटकेंगे। संसार में सभी प्रकार की कठिनाइयों का अनुभव करके ही वे फलपदवी तक पहुँच सकेंगे। भिक्षु भविष्य में इसी प्रकार साधना करेंगे।
कठिनाई की बात करते हुए, मैं आपको यह बता दूँ : एक बार जब कोई व्यक्ति साधना अभ्यास करता है, तो वह निश्चित रूप से कठिनाई का अनुभव करेगा - वह कठिनाई का सामना करेगा। जो लोग दाफा का अभ्यास करते हैं उन्हें आशीर्वाद प्राप्त है, लेकिन जब वे साधना अभ्यास करते हैं तो उन्हें कष्ट भी होते हैं - यह निश्चित है। फिर भी अक्सर जब लोग थोड़ा कष्ट उठाते हैं या थोड़ी सी कठिनाई का अनुभव करते हैं तो वे इसे एक बुरी चीज के रूप में लेते हैं। "ऐसे कैसे मैं यहाँ और वहाँ असहज अनुभव करता हूँ?" यदि आप जीवन भर आराम से रहते हैं, तो मैं आपको बता सकता हूं कि आप नर्क में जाने के लिए बाध्य हैं। यदि आप जीवन भर बीमार नहीं पड़ते—जीवन भर आराम से रहने की तो बात ही छोड़ दें—मृत्यु के बाद यह सौ प्रतिशत निश्चित है कि आप नर्क में जाएंगे। जीवित रहना कर्म उत्पन्न करता है। आपके लिए कर्म उत्पन्न न करना असंभव है, क्योंकि जैसे ही आप अपना मुंह खोलते हैं, आप दूसरों को आहत कर सकते हैं। आप जो कहते हैं वह अनजाने में दूसरों को आहत कर सकता है: हो सकता है कि एक व्यक्ति को आप जो कहते हैं उससे उसको कोई अंतर नहीं पड़ता, लेकिन कोई और इसे सुनता है और आहत हो जाता है । जब तक मनुष्य जीवित रहते हैं, वे जो खाते हैं जीव हैं, और जब वे चलते हैं तब भी वे जीवों पर पैर रखेंगे और उन्हें मार डालेंगे। निश्चित ही, हमने कहा है कि जब आप संसार में रहते हैं तो आप कर्म उत्पन्न करते हैं। यदि आप बीमार नहीं पड़ते हैं, तो आपके कर्म समाप्त नहीं होंगे। जब लोग बीमारी से पीड़ित होते हैं, तो उनके कर्म वास्तव में समाप्त हो रहे होते हैं। इसके समाप्त होने के बाद आप ठीक हो जाते हैं। अक्सर, किसी व्यक्ति को कोई गंभीर बीमारी हो जाती है, और कुछ समय बाद, जब आप ठीक हो जाते हैं, तो आप पाएंगे कि आपका चेहरा कांति से दमक रहा है और आप जो कुछ भी करते हैं वह सुचारू रूप से होता रहेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि आपके कर्म के समाप्त हो जाने के बाद यह पुण्य - सद्गुण में परिवर्तित हो जाता है। क्योंकि आपने कष्ट सहा है, आप जो कुछ भी करते हैं वह साधारणतः सुचारू रूप से चलेगा और सरलता से पूरा किया जा सकता है। लोग इसे नहीं देख सकते हैं, इसलिए वे सोचते हैं कि थोड़ी सी भी कठिनाई से गुज़रना बुरा है। वास्तव में, कठिनाई के बारे में इतना डरावना क्या है? भले ही आपको थोड़ी सी कठिनाई हो, यदि आप अपनी इच्छाशक्ति को शक्तिशाली करते हैं और उसका सामना करते हैं, तो आप बाद में पाएंगे कि आप जो कुछ भी करते हैं वह अलग तरीके से आगे बढ़ेगा। मैं कहूँगा कि यह केवल कठिनाइयों से अधिक कुछ नहीं है जो मनुष्य को साधना अभ्यास करते समय सहनी पड़ती है। यदि आप [कठिनाई के डर] को छोड़ने में सक्षम हैं, तो आप निश्चित रूप से फलपदवी तक पहुंच जाएंगे। एक उच्च दृष्टिकोण से बताया जाये तो, यदि आप जीवन और मृत्यु के विचार को छोड़ने में सक्षम हैं, तो आप वास्तव में एक देव हैं!
बुद्ध अमिताभ ने कहा कि उनके बुद्ध नाम का जाप करके, लोग सुखावटी दिव्यलोक में पुनर्जन्म ले सकते हैं। यह कैसे हो सकता है? उनकी बातों को उपरी तौर पर नहीं समझा जा सकता। यह सच है कि बुद्ध के नाम का जाप करने से व्यक्ति सुखावटी दिव्यलोक में जा सकता है, लेकिन लोगों ने बुद्ध के शब्दों की उपरी तौर पर व्याख्या की है। बुध्द फा के विभिन्न स्तरों पर आंतरिक अर्थ होते हैं। उनके बुद्ध नाम का जप करना वास्तव में अभ्यास है। आप तब तक जप करते रहते हैं जब तक कि आपके मन में "अमिताभ" शब्द के अतिरिक्त कुछ नहीं रह जाता है - एक विचार दस हजार विचारों का स्थान ले लेता है - आप जप करते हैं और अपने मन को पूरी तरह से रिक्त कर देते हैं, सिवाय "अमिताभ" के। बुद्ध के नाम का जप करते समय, आप अनेक मोहभावों और विभिन्न विघ्नों से बाधित होंगे—क्या आप उन्हें रोक सकते हैं? जब सभी मोहभावों को छोड़ दिया जाता है और मन रिक्त हो जाता है, तो साधना का लक्ष्य प्राप्त हो जाता है। आपका बुद्ध के नाम का जप करना भी बुद्ध के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति है। आप जप करते हैं क्योंकि आप सुखावटी दिव्यलोक में जाना चाहते हैं, तो निश्चित रूप से सुखावटी दिव्यलोक से बुद्ध आपकी देखभाल करने आएंगे, क्योंकि आप बुद्धत्व की साधना कर रहे हैं। इसमें गहरा आंतरिक अर्थ है। कुछ लोग कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति मरने से ठीक पहले अमिताभ का जाप करता है तो वह सुखावटी दिव्यलोक में जा सकता है। लेकिन ऐसा करने के लिए आपको कैसा होना चाहिए? जब आप वास्तव में जीवन और मृत्यु के विचार को छोड़ने में सक्षम होते हैं, तो आप वास्तव में वहां जा सकते हैं। मनुष्य और देव में यही अंतर है। यदि आप जीवन और मृत्यु को छोड़ सकते हैं, तो आप एक देव हैं; यदि आप जीवन और मृत्यु को नहीं छोड़ सकते, तो आप एक मनुष्य हैं—यही अंतर है। हम साधना करते हैं और साधना करते रहते हैं और सभी मोहभावों को छोड़ देते हैं—क्या आपने जीवन और मृत्यु को भी नहीं छोड़ दिया होगा? यदि कोई जीवन और मृत्यु को एक साथ छोड़ सकता है, तो और अन्य क्या मोहभाव हो सकते हैं? "फा को प्राप्त कर लेने के बाद, मैं जीवन और मृत्यु से भी नहीं डरता और यहाँ तक कि मैं अपना जीवन भी त्याग सकता हूँ।" फिर वह अब भी किस चीज से मोहभाव रख सकता है? कहने का यही तात्पर्य है। जब लोग मरने वाले होते हैं तो वे अविश्वसनीय रूप से डर जाते हैं, "अरे नहीं! मैं शीघ्र ही मरने वाला हूं। यह मेरा अंतिम श्वास है।" वह किस प्रकार की भावना है? लेकिन कुछ लोग मृत्यु के निकट डरे हुए नहीं होते हैं और उनके होंठ अभी भी अमिताभ का जप कर रहे होते हैं - क्या आप कहेंगे कि वे सुखावटी दिव्यलोक में नहीं जाएंगे? सब कुछ छोड़ देने के बाद उन्हें जीवन और मृत्यु की धारणा ही नहीं रहती है। एक व्यक्ति का हर विचार साधना की एक लंबी अवधि पर निर्मित होता है। साधारण लोगों के विचार अत्यंत जटिल होते हैं और उनमें सभी प्रकार के मोहभाव होते हैं। जीवन और मृत्यु के महत्वपूर्ण क्षण में वे कैसे भयभीत नहीं हो सकते? मैंने कहा है कि "एक महान मार्ग सबसे सरल और आसान है," और यह कि बहुत सी चीजें बहुत सरल हैं लेकिन जब उनका विश्लेषण किया जाता है और उन्हें विस्तार से समझाया जाता है तो बहुत अधिक चर्चा की आवश्यकता होती है। फिर भी यदि आपको सीधे कहा जाता, तो आप ऐसा नहीं कर पाते, और लोग इतने गहरे स्तर पर चीजों को समझने में सक्षम नहीं होते। वे सभी शब्दों को ऊपर-ऊपर से देखकर, सतही तौर पर समझते हैं। इसलिए मुझे आपको फा सिखाने की आवश्यकता है।
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